तस्मात्—अत:; रज:—रजोगुण का; राग—भौतिक वस्तुओं के प्रति लगाव; विषाद—तब निराशा; मन्यु—क्रोध; मान स्पृहा—समाज में सम्मानित बनने की कामना; भय—भय; दैन्य—दीनता का; अधिमूलम्—मूल कारण; हित्वा—परित्याग करके; गृहम्—गृहस्थ जीवन; संसृति-चक्रवालम्—जन्म-मरण का चक्र; नृसिंह-पादम्—भगवान् नृसिंह देव के चरणारविन्द; भजत—पूजा करते हुए; अकुत:-भयम्—निर्भीकता की शरण; इति—इस प्रकार ।.
अनुवाद
अत:, हे असुरगण, गृहस्थ जीवन के तथाकथित सुख का परित्याग करके भगवान् नृसिंह देव के चरणारविन्दों की शरण ग्रहण करो। वे ही निर्भीकता की वास्तविक शरण-स्थली हैं। सांसारिक अनुरक्ति, दुर्दमनीय कामनाएँ, विषाद, क्रोध, निराशा, भय, झूठी प्रतिष्ठा की भूख इन सबका मूल कारण गृहस्थ जीवन में आसक्ति है, जिसके कारण जीवन-मरण का चक्र चलता रहता है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥