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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 18: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान् की स्तुति  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  5.18.19 
स्त्रियो व्रतैस्त्वा हृषीकेश्वरं स्वतो
ह्याराध्य लोके पतिमाशासतेऽन्यम् ।
तासां न ते वै परिपान्त्यपत्यं
प्रियं धनायूंषि यतोऽस्वतन्त्रा: ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
स्त्रिय:—सभी स्त्रियाँ; व्रतै:—व्रत उपवास रखकर; त्वा—आप; हृषीकेश्वरम्—इन्द्रियों के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को; स्वत:—स्वयमेव; हि—निश्चयपूर्वक; आराध्य—आराधना करके; लोके—इस जगत में; पतिम्—पति, स्वामी; आशासते— याचना करते हैं; अन्यम्—दूसरा; तासाम्—उन सभी स्त्रियों का; —नहीं; ते—वे पति; वै—निस्सन्देह; परिपान्ति—रक्षा करने में समर्थ; अपत्यम्—सन्तानें; प्रियम्—अत्यन्त प्रिय; धन—सम्पत्ति; आयूंषि—अथवा जीवनकाल; यत:—क्योंकि; अस्व तन्त्रा:—आश्रित ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभो, आप निश्चित रूप से समस्त इन्द्रियों के पूर्ण रूप से स्वतंत्र स्वामी हैं। अत: समस्त स्त्रियाँ जो अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए पति को पाने की कामना से संकल्पों का दृढ़पालन करके आपकी उपासना करती हैं, वे अवश्य ही मोहग्रस्त हैं। वे यह नहीं जानती कि ऐसा पति न तो उनकी और न ही उनकी सन्तानों की रक्षा कर सकता है। वह स्वयं ही काल, कर्मफल तथा प्रकृति-गुणों के अधीन है जो सब आपके अधीनस्थ हैं, अत: वह न तो सम्पत्ति की रक्षा कर सकता है और न अपने सन्तानों की।
 
तात्पर्य
 प्रस्तुत श्लोक में देवी लक्ष्मी उन स्त्रियों के प्रति दयाभाव प्रदर्शित कर रही हैं, जो सुयोग्य वर पाने के उद्देश्य से भगवान् की आराधना करती हैं। यद्यपि ऐसी स्त्रियाँ सन्तान, धन, दीर्घायु तथा अपनी प्रिय वस्तुओं को प्राप्त करने की कामना करके सुखी बनना चाहती हैं, किन्तु वे वैसा नहीं कर पातीं। भौतिक जगत में तथाकथित पति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् पर आश्रित होता है। ऐसी स्त्रियों के अनेक उदाहरण प्राप्त हैं जिनके पति अपने कर्मफलों के आधार पर अपनी पत्नी, सन्तान, पत्नी के धन तथा उसके जीवन का पालन नहीं कर पाते। अत: वास्तव में समस्त स्त्रियों के परम पति श्रीकृष्ण हैं। गोपियाँ मुक्त जीव होने के कारण इस तथ्य से परिचित थीं। इसीलिए उन्होंने अपने सांसारिक पतियों को त्याग कर श्रीकृष्ण को अपने वास्तविक पति के रूप में स्वीकार किया। श्रीकृष्ण न केवल गोपियों के, वरन् प्रत्येक जीवात्मा के वास्तविक स्वामी हैं। अत: सबों को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि श्रीकृष्ण सभी जीवात्माओं के वास्तविक पति हैं। इसलिए भगवद्गीता में उन्हें प्रकृति (स्त्री) कहा गया है, पुरुष (नर) नहीं। भगवद्गीता (१०.१२) में केवल श्रीकृष्ण को ही पुरुष कहकर सम्बोधित किया गया है—

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥

“अर्जुन ने कहा, हे प्रभो! आप परम ब्रह्म, परम धाम तथा पालनकर्ता परम-तत्त्व तथा सनातन दिव्य पुरुष हैं। आप ही चिन्मय आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी सौन्दर्य हैं।” श्रीकृष्ण आदिपुरुष हैं और जीवात्माएँ प्रकृति स्वरूपा हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण भोक्ता हैं और सभी जीवात्माएँ उनके भोगार्थ हैं। अत: यदि कोई स्त्री अपनी रक्षा के लिए संसारी पति की चाह करती है या कोई पुरुष पति बनने के लिए पत्नी की कामना करता है, तो वह मोहग्रस्त है। पति बनने का अर्थ होता है धन तथा सुरक्षा द्वारा पत्नी और सन्तान का अच्छा पोषण। किन्तु सांसारिक पति ऐसा करने में समर्थ नहीं हो पाता, क्योंकि वह कर्माधीन होता है। कर्मणा दैव-नेत्रेण—उसकी परिस्थितियाँ उसके विगत कर्मों से निर्धारित होती हैं। अत: कोई यह गर्व करे कि वह अपनी पत्नी की रक्षा कर सकता है, तो वह मोहग्रस्त ही है। श्रीकृष्ण ही एकमात्र पति हैं, अत: इस भौतिक जगत में पति-पत्नी का सम्बन्ध कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता। चूँकि हममें विवाह करने की आकांक्षा रहती है, इसलिए श्रीकृष्ण दयापूर्वक तथाकथित पति को पत्नी बनाने के लिए अनुमति देते हैं। और पारस्परिक सन्तोष के लिए स्त्री को पति बनाने की अनुमति देते हैं। ईशोपनिषद् में कहा गया है—तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा—ईश्वर सबों को उसका प्राप्य प्रदान करते हैं। तो भी वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक जीवात्मा प्रकृति है और श्रीकृष्ण ही एकमात्र (भर्ता) पति हैं।

एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।

यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥

(चैतन्यचरितामृत आदि ५.१४२) श्रीकृष्ण प्रत्येक प्राणी के आद्यपति हैं और अन्य समस्त जीवात्माएँ पति या पत्नी के रूप में उन्हीं की इच्छा से नाच रही हैं। इन्द्रियतृप्ति के लिए तथाकथित पति अपनी पत्नी से भले ही संभोग करे, किन्तु उसकी इन्द्रियों का संचालन हृषीकेश द्वारा होता है जो वास्तविक पति हैं।

 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥