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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  5.2.1 
श्रीशुक उवाच
एवं पितरि सम्प्रवृत्ते तदनुशासने वर्तमान आग्नीध्रो जम्बूद्वीपौकस: प्रजा औरसवद्धर्मावेक्षमाण: पर्यगोपायत् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक:—श्रीशुकदेव गोस्वामी; उवाच—बोले; एवम्—इस प्रकार; पितरि—जब उसके पिता ने; सम्प्रवृत्ते—मुक्ति मार्ग ग्रहण किया; तत्-अनुशासने—उसकी आज्ञानुसार; वर्तमान:—वर्तमान,उपस्थित; आग्नीध्र:—राजा आग्नीध्र; जम्बू-द्वीप-ओकस:—जम्बूदीप के वासी; प्रजा:—नागरिक; औरस-वत्—अपने पुत्रों के समान; धर्म—धार्मिक नियम; अवेक्षमाण:— कठोरता से पालन करते हुए; पर्यगोपायत्—पूर्णतया सुरक्षित ।.
 
अनुवाद
 
 श्री शुकदेव गोस्वामी आगे बोले—अपने पिता महाराज प्रियव्रत के इस प्रकार आध्यात्मिक जीवन पथ अपनाने के लिए तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र ने उनकी आज्ञा का पूरी तरह पालन किया और धार्मिक नियमों के अनुसार उन्होंने जम्बूद्वीप के वासियों को अपने ही पुत्रों के समान सुरक्षा प्रदान की।
 
तात्पर्य
 महाराज आग्नीध्र ने अपने पिता महाराज प्रियव्रत की आज्ञानुसार धार्मिक नियमों का पालन करते हुए जम्बूद्वीप के वासियों पर राज्य किया। वर्तमान अश्रद्धा के युग में ये नियम पूर्णतया विरोधी हैं। यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि राजा नागरिकों की वैसी ही देख-रेख करता था जिस प्रकार पिता अपने ही पुत्रों की करता है। यहाँ यह भी बताया गया है कि उसने नागरिकों पर किस प्रकार—

धर्मावेक्षमाण: अर्थात् धार्मिक नियमों का दृढ़ता से पालन करते हुए राज्य किया। किसी शासक के लिए यह आवश्यक है कि वह देखे कि उसकी प्रजा धार्मिक नियमों का कठोर पालन करती है। वैदिक धर्म के नियम वर्णाश्रम धर्म से प्रारम्भ होते हैं। धर्म से तात्पर्य भगवान् द्वारा प्रदत्त नियमों से है। धर्म का पहला नियम है भगवान् द्वारा निर्दिष्ट चारों आश्रमों के कर्तव्यों का पालन। व्यक्तियों के गुणों तथा कर्मों के अनुसार समाज को पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में और फिर ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी में विभाजित किया जाता है। ये धार्मिक नियम हैं और राज्य के मुखिया (राजा) का यह कर्तव्य है कि वह देखे कि उसके नागरिक इनका दृढ़ता से पालन करते हैं। उसे कोरे अधिकारी के रूप में कर्तव्य नहीं करना चाहिए, वरन् उसे पिता के तुल्य होना चाहिए जो अपने पुत्रों का सदैव हितैषी होता है। ऐसा पिता इसका पूरा ध्यान रखता है कि उसके पुत्र अपना कर्तव्यपालन कर रहे हैं और कभी-कभी वह उन्हें दंड भी देता है।

उपर्युक्त नियमों के विपरीत, कलियुग में राष्ट्रपति तथा प्रधान शासकगण केवल कर-संग्रह करने वाले हैं, जिन्हें इसकी तनिक भी परवाह नहीं रहती कि धार्मिक नियमों का पालन हो रहा है अथवा नहीं। सच तो यह है कि आज के प्रधान शासकगण सभी प्रकार के पापमय कार्यों का, विशेष रूप से व्यभिचार, मादक द्रव्य सेवन, पशुवध तथा द्यूत क्रीड़ा का सूत्रपात करते हैं। आजकल भारत में ये पापकर्म स्पष्ट देखे जा सकते हैं। यद्यपि एक शताब्दी पूर्व ये चार दुर्गुण भारतीय परिवारों में पूर्णतया वर्जित थे, किन्तु अब प्रत्येक भारतीय परिवार में इनकी पैठ हो चुकी है, अत: वे धार्मिक नियमों का पालन नहीं कर पाते। प्राचीन राजाओं के नियम के विपरीत आधुनिक राज्य कर वसूलने के विज्ञापन में अधिक और नागरिकों के धार्मिक कल्याण के प्रति कम ध्यान देता है। अब राज्य धार्मिक नियमों के प्रति उदासीन है। श्रीमद्भागवत की भविष्यवाणी है कि कलियुग में शासन द्वारा दस्यु धर्म चलाया जाएगा, जिसका अर्थ होता है चोरों और उचक्कों द्वारा शासन। आधुनिक राज्यों के कर्णधार चोर और उचक्के ही हैं, जो नागरिकों की रक्षा करने के बजाय उनको लूटते हैं। यद्यपि चोर तथा उचक्के कानून की अवहेलना करके लूटपाट करते हैं, किन्तु इस कलियुग में कानून बनाने वाले स्वयं नागरिकों को लूटते हैं—ऐसा श्रीमद्भागवत में कहा गया है। एक दूसरी भविष्यवाणी जिसे पूरा होना है, वह यह है कि नागरिकों तथा शासन के पापकर्मों से वर्षा दुर्लभ हो जायेगी, धीरे-धीरे पूर्ण अनावृष्टि के कारण अन्न नहीं उत्पन्न होगा। लोगों को मांस तथा बीज खाना पड़ेगा और अनेक सद्वृत्ति वाले मनुष्य अपने-अपने गृहों का त्याग कर देंगे, क्योंकि अकाल, कर तथा अनावृष्टि से वे अत्यधिक तंग हो उठेंगे। संसार को ऐसे विनाश से बचाने के लिए कृष्णभावनामृत आन्दोलन ही एकमात्र आशा है। यह समस्त मानव समाज के वास्तविक कल्याण हेतु अत्यन्त वैज्ञानिक तथा प्रामाणिक आन्दोलन है।

 
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