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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  5.2.11 
किं सम्भृतं रुचिरयोर्द्विज श‍ृङ्गयोस्तेमध्ये कृशो वहसि यत्र द‍ृशि: श्रिता मे ।
पङ्कोऽरुण: सुरभीरात्मविषाण ईद‍ृग्येनाश्रमं सुभग मे सुरभीकरोषि ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
किम्—क्या; सम्भृतम्—भरा हुआ; रुचिरयो:—अत्यन्त सुन्दर; द्विज—हे ब्राह्मण; शृङ्गयो:—दो सींगों के भीतर; ते—तुम्हारा; मध्ये—बीच में; कृश:—पतली; वहसि—धारण करते हो; यत्र—जिसमें; दृशि:—आँखें; श्रिता—टिकी हुई; मे—मेरी; पङ्क:—चूर्ण; अरुण:—लाल; सुरभि:—सुगंधित; आत्म-विषाणे—दो सींगों पर; ईदृक्—ऐसा; येन—जिसके द्वारा; आश्रमम्—आश्रम; सु-भग—हे भाग्यवान्; मे—मेरा; सुरभी-करोषि—सुगन्धित बना रहे हो ।.
 
अनुवाद
 
 तब आग्नीध्र ने पूर्वचित्ति के उभरे हुए उरोजों की प्रशंसा की। उन्होंने कहा—हे ब्राह्मण, तुम्हारी कमर अत्यन्त पतली है, किन्तु फिर भी तुम कष्ट सह कर इन दो सींगों को धारण कर रहे हो जिन पर मेरे नेत्र अटक गये हैं। इन दोनों सुन्दर सीगों के भीतर क्या भरा है? तुमने इनके ऊपर सुगन्धित लाल-लाल चूर्ण छिडक़ रखा है मानो अरुणोदय का सूर्य हो। हे भाग्यवान्, क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुम्हें ऐसा सुगन्धित चूर्ण कहाँ से मिला जो मेरे आश्रम को सुरभित कर रहा है?
 
तात्पर्य
 आग्नीध्र ने पूर्णचित्ति के उन्नत उरोजों की प्रशंसा की। उसके उरोजों को देखकर वह लगभग प्रमत्त हो उठा। तो भी वह नहीं पहचान पाया कि पूर्वचित्ति किशोर था या कोई किशोरी; इसीलिए उसने उसे द्विज (हे ब्राह्मण!) कहकर सम्बोधित किया। किन्तु द्विज अर्थात् ब्राह्मण बालक के वक्षस्थल पर सींग क्यों हों? क्योंकि बालक की कमर पतली थी, आग्नीध्र ने सोचा कि वह अत्यन्त कठिनाई से इनका भार ढो रहा है, अत: इनके भीतर अवश्य ही कुछ मूल्यवान वस्तु भरी होगी। अन्यथा वह उनको क्यों वहन कर रहा है? जब किसी स्त्री की कटि पतली और उरोज उठे हुए होते हैं, तो वह अत्यन्त आकर्षक लगती है। आग्नीध्र ने मोहित नेत्रों से कृश शरीर वाली लडक़ी के लाल स्तनों का चिन्तन किया और कल्पना की कि उसके नितम्ब इसको कैसे वहन करते होंगे। आग्नीध्र ने कल्पना की कि उसके उन्नत उरोज उसके दो सींग हैं, जिन्हें उसने वस्त्र से इसलिए ढक रखा था, जिससे उनके भीतर के बहुमूल्य पदार्थ को कोई देख न सके। किन्तु आग्नीध्र उनको देखने के लिए अत्यन्त व्यग्र था, अत: उसने प्रार्थना की “कृपया इनसे आवरण हटा दो जिससे मैं देख सकूँ कि इनके भीतर क्या भरा है। विश्वास रखो कि मैं उन्हें ले नहीं भागूँगा। यदि तुम्हें कुछ असुविधा हो तो क्या मैं स्वयं खोलकर देख सकता हूँ कि इन उन्नत सींगों के भीतर क्या है?” वे उसके स्तनों के ऊपर फैले हुए सुरभित कुंकुम के लाल चूर्ण से चकित थे। इतने पर भी उसने पूर्वचित्ति को बालक समझ कर उसे सुभग अर्थात् भाग्यशाली मुनि कह कर सम्बोधित किया। यह बालक भाग्यशाली रहा होगा, अन्यथा इसके वहाँ खड़े होने से आग्नीध्र का पूरा आश्रम कैसे महक सकता था?
 
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