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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  5.2.13 
का वाऽऽत्मवृत्तिरदनाद्धविरङ्ग वातिविष्णो: कलास्यनिमिषोन्मकरौ च कर्णौ ।
उद्विग्नमीनयुगलं द्विजपङ्क्तिशोचि-रासन्नभृङ्गनिकरं सर इन्मुखं ते ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
का—क्या; वा—तथा; आत्म-वृत्ति:—शरीर के पालन हेतु भोजन; अदनात्—पान के चबाने से; हवि:—यज्ञ की हवन सामग्री; अङ्ग—मेरे प्रिय मित्र; वाति—फैल रही है; विष्णो:—भगवान् विष्णु के; कला—शरीर का अंश; असि—हो; अनिमिष— अपलक; उन्मकरौ—दो उज्ज्वल मगर; —भी; कर्णौ—दो कान; उद्विग्न—परेशान, अस्थिर; मीन-युगलम्—दो मछलियों सहित; द्विज-पङ्क्ति—दाँतों की पाँत; शोचि:—सुन्दरता; आसन्न—सन्निकट; भृङ्ग-निकरम्—भौंरों का समूह; सर: इत्—सरोवर के सदृश; मुखम्—मुँह; ते—तुम्हारा ।.
 
अनुवाद
 
 मित्रवर, शरीर पालने के लिए तुम क्या खाते हो? ताम्बूल चबाने से तुम्हारे मुख से सुगन्ध फैल रही है। इससे यह सिद्ध होता है कि तुम सदैव विष्णु का प्रसाद खाते हो। निश्चय ही तुम भगवान् विष्णु के अंश स्वरूप हो। तुम्हारा मुख मनोहर सरोवर के समान सुन्दर है। तुम्हारे रत्नजटित कुंडल उन दो उज्ज्वल मकरों के तुल्य हैं जिनके नेत्र विष्णु के समान अपलक रहने वाले हैं। तुम्हारे दोनों नेत्र दो चंचल मछलियों के सदृश हैं। इस प्रकार तुम्हारे मुख-सरोवर में दो मकर तथा दो चंचल मछलियाँ एक साथ तैर रही हैं। इनके अतिरिक्त तुम्हारे दाँतों की धवल पंक्ति जल में श्वेत हंसों की पंक्ति के सदृश प्रतीत होती है और तुम्हारे बिखरे बाल तुम्हारे मुख की शोभा का पीछा करने वाले भौंरों के झुंड के समान हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् विष्णु के भक्त उन्हीं के अंश भी हैं और विभिन्नांश कहलाते हैं। भगवान् विष्णु को सभी प्रकार की हवियाँ भेंट की जाती हैं और भक्तगण उनका बचा हुआ भोजन, अर्थात् प्रसाद खाते हैं, अत: हवि की सुगन्धि न केवल विष्णु से निकलती है, वरन् प्रसाद पाने वाले भक्तों के शरीरों से भी निकलती है। आग्नीध्र पूर्वचित्ति को उसके शरीर से निर्गत सुगन्धि के कारण भगवान् विष्णु का अंश मान रहे थे। इसके साथ ही साथ उसके मकराकार रत्नजटित कुंडलों, उसकी शरीर की सुगंध के पीछे मत्त होकर दौडऩे वाले भौंरों के समान काले बालों तथा हंसों के समान श्वेत दंतपंक्ति के कारण आग्नीध्र ने उसके मुख की उपमा कमल पुष्पों, मछलियों, हंसों तथा भौंरों से अलंकृत सुन्दर सरोवर से दी।
 
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