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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  5.2.16 
न त्वां त्यजामि दयितं द्विजदेवदत्तंयस्मिन्मनो द‍ृगपि नो न वियाति लग्नम् ।
मां चारुश‍ृङ्‌ग्यर्हसि नेतुमनुव्रतं तेचित्तं यत: प्रतिसरन्तु शिवा: सचिव्य: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; त्वाम्—तुमको; त्यजामि—छोडूँगा; दयितम्—अत्यन्त प्रिय; द्विज-देव—ब्राह्मणों के उपास्य देवता, भगवान् ब्रह्मा से; दत्तम्—दिया हुआ; यस्मिन्—जिसको; मन:—मन; दृक्—आँखें; अपि—भी; न:—मेरा; न वियाति—दूर नहीं जाता है; लग्नम्—दृढ़तापूर्वक लगा हुआ; माम्—मुझको; चारु-शृङ्गि—हे सुन्दर उन्नत उरोजों वाली स्त्री; अर्हसि—तुम्हे चाहिए; नेतुम्— पथ प्रदर्शन करना; अनुव्रतम्—अनुयायी; ते—तुम्हारा; चित्तम्—आकांक्षा; यत:—जहाँ कहीं भी; प्रतिसरन्तु—साथ चलें; शिवा:—अनुकूल; सचिव्य:—मित्रगण, सखियाँ ।.
 
अनुवाद
 
 ब्राह्मणों के द्वारा पूजित भगवान् ब्रह्मा ने मुझपर अत्यन्त अनुग्रह करके तुमको मुझे दिया है; इसलिए मैं तुमसे मिल पाया हूँ। मैं तुम्हारा साथ नहीं छोडऩा चाहता, क्योंकि मेरे मन तथा नेत्र तुम्हीं पर टिके हुए हैं और वे किसी तरह दूर नहीं किये जा सकते। हे सुन्दर उन्नत उरोजों वाली बाला, मैं तुम्हारा अनुचर हूँ। तुम मुझे जहाँ भी चाहे ले जा सकती हो और तुम्हारी सखियाँ भी मेरे साथ चल सकती हैं।
 
तात्पर्य
 अब आग्नीध्र अपनी दुर्बलता को बिना झिझक के स्वीकार करता है। वह पूर्वचित्ति पर मोहित था, अत: इसके पूर्व कि वह यह कहे कि मुझे तुमसे क्या प्रयोजन, वह उसके साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त करता है। वह इतना मोहित था कि उसके साथ कहीं भी जाने को तैयार था, चाहे वह स्वर्ग हो या नरक। जब कोई कामासक्त हो उठता है, तो वह बिना किसी शर्त के स्त्री के समक्ष आत्म-समर्पण कर देता है। इस सम्बन्ध में श्रील मध्वाचार्य का कथन है कि जब कोई सनकी व्यक्ति की तरह हँसी-मजाक करने लगता है, तो वह कुछ भी कह सकता है, किन्तु उसके शब्द निरर्थक होते हैं।
 
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