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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  5.2.17 
श्रीशुक उवाच
इति ललनानुनयातिविशारदो ग्राम्यवैदग्ध्यया परिभाषया तां विबुधवधूं विबुधमतिरधिसभाजयामास ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति—इस प्रकार; ललना—स्त्रियाँ; अनुनय—जीतने में; अति विशारद:—अत्यन्त पटु; ग्राम्य-वैदग्ध्यया—अपनी इच्छाओं को पूरा करने में पटु; परिभाषया—चुने शब्दों से; ताम्—उस; विबुध-वधूम्—देव-कन्या को; विबुध-मति:—देवताओं के तुल्य बुद्धि वाले आग्नीध्र ने; अधिसभाजयाम् आस—प्रसन्न कर लिया ।.
 
अनुवाद
 
 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले—महाराज आग्नीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान और स्त्रियों को रिझा करके अपने पक्ष में कर लेने की कला में अत्यन्त निपुण थे। अत: उन्होंने उस स्वर्गकन्या को अपनी कामपूर्ण वाणी से प्रसन्न करके उसको अपने पक्ष में कर लिया।
 
तात्पर्य
 चूँकि राजा आग्नीध्र भक्त था, अत: वास्तव में भौतिक सुख की उसे तनिक भी इच्छा नहीं थी, किन्तु अपना वंश चलाने के लिए उसे पत्नी की आवश्यकता थी और भगवान् ब्रह्मा ने पूर्वचित्ति को इसी प्रयोजन के लिए भेजा था, अत: उसने अपनी मीठी वाणी से उसे रिझा लिया। स्त्रियाँ मनुष्यों की मीठी वाणी से आकृष्ट हो जाती हैं। जो इस कला में दक्ष होता है उसे विदग्ध कहते हैं।
 
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