राजा पितृलोककाम अर्थात् पितृलोक में जाने का इच्छुक हो गया। पितृलोक का उल्लेख भगवद्गीता में हुआ है (यान्ति देवव्रता देवान् पितृृन् यान्ति पितृव्रता:)। इस लोक में जाने के लिए उत्तम पुत्र होने चाहिए जो भगवान् विष्णु को भेंट चढ़ाने के पश्चात् जो कुछ बचे उसे अपने पितरों (पूर्वजों) को चढ़ाएँ। श्राद्ध संस्कार का उद्देश्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना है, जिससे उनके प्रसन्न होने के बाद जो प्रसाद बचे उसे अपने पितरों को दिया जा सके जिससे वे प्रसन्न हों। पितृलोक के वासी प्राय: कर्मकाण्डी होते हैं और अपने पुण्यकर्मों के कारण वहाँ भेजे गये होते हैं। वे वहाँ तब तक रहते हैं जब तक उनके वंशज उन्हें विष्णु-प्रसाद भेंट करते रहते हैं। किन्तु पितृलोक के प्रत्येक प्राणी को पुण्यकर्मों के फलों से क्षय होने पर इस पृथ्वी में वापस आना पड़ता है। जैसाकि भगवद्गीता (९.२१) में पुष्टि की गई है—क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति—जो पुरुष पुण्यकर्म करते हैं, वे स्वर्ग भेजे जाते हैं, किन्तु जब उनके पुण्यकर्मों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, तो वे पुन: पृथ्वी पर वापस भेज दिये जाते हैं। चूँकि महाराज प्रियव्रत परम भक्त थे अत: उनसे ऐसा पुत्र किस प्रकार उत्पन्न हुआ होगा जो पितृलोक भेजे जाने का कामी हो? भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—पितृृन् यान्ति पितृव्रता:—जो व्यक्ति पितृलोक जाना चाहते हैं उन्हें वहाँ भेज दिया जाता है। इसी प्रकार यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्—जो पुरुष वैकुण्ठ लोक जाना चाहते हैं, वे भी वहाँ जा सकते हैं। चूँकि महाराज आग्नीध्र एक वैष्णव-पुत्र थे, अत: उन्होंने वैकुण्ठ लोक जाने की कामना की होगी। तो फिर वे पितृलोक में क्यों जाना चाहते थे? इसके उत्तर में भागवत के एक टीकाकार गोस्वामी गिरिधर की टिप्पणी है कि आग्नीध्र उस समय उत्पन्न हुए थे जब महाराज प्रियव्रत अत्यन्त कामासक्त थे। इसे तथ्य के रूप में ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि गर्भावस्था के समय जैसी मनोवृत्ति होती है उसी के अनुकूल पुत्र उत्पन्न होते हैं। अत: वैदिक प्रणाली के अनुसार पुत्रोत्पत्ति के पूर्व गर्भाधान संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से पिता की मनोवृत्ति ऐसी हो जाती है कि जब वह अपनी पत्नी के गर्भ में वीर्य स्थापित करता है, तो उससे ऐसा पुत्र उत्पन्न होता है, जिसका मन भक्ति से ओतप्रोत हो। किन्तु सम्प्रति ऐसा गर्भाधान-संस्कार नहीं है, अत: जब पुरुषों में कामवासना रहती है तभी सन्तान उत्पन्न होती है। विशेष रूप से इस कलियुग में कोई गर्भाधान संस्कार नहीं रह गया प्रत्येक व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ कुत्तों तथा बिल्लियों जैसा संभोग करता है। अत: वैदिक आदेशों के अनुसार इस युग के सभी व्यक्ति प्राय: शूद्र कोटि के हैं।
निस्सन्देह, पितृलोक में भेजे जाने की कामना के पीछे महाराज आग्नीध्र की मनोवृत्ति शूद्र की सी नहीं थी; वे क्षत्रिय थे।
महाराज आग्नीध्र की इच्छा थी कि वे पितृलोक जाँए, इसलिए उन्हें पत्नी की आवश्यकता हुई, क्योंकि पितृलोक के इच्छुक पुरुष को अपने पीछे उत्तम पुत्र छोड़ जाना चाहिए जो प्रतिवर्ष भगवान् विष्णु से प्रसाद या पिण्ड उसे प्रदान करता रहे। उत्तम पुत्र पाने के लिए ही महाराज आग्नीध्र ने देवकुल की पत्नी चाही थी। अत: वे ब्रह्मा के आराधन हेतु मन्दराचल गये जहाँ सामान्य रूप से देवों की स्त्रियाँ आती हैं। भगवद्गीता (४.१२) में कहा गया है—कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:—जो भौतिकतावादी इस संसार में शीघ्र फल चाहते हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं। इसकी पृष्टि श्रीमद्भागवत से भी होती है—श्रीऐश्वर्य-प्रजेप्सव:—जो पुरुष सुन्दर पत्नी, प्रचुर धन तथा अनेक पुत्रों की कामना करते हैं, वे देवताओं को पूजते हैं। किन्तु बुद्धिमान भक्त तो इन सबकी कामना नहीं करता। वह भगवान् के धाम को तुरन्त वापस जाना चाहता है। इस प्रकार वह भगवान् विष्णु की उपासना करता है।