अपनी माँ का दूध पीने के कारण आग्नीध्र के नवों पुत्र अत्यन्त बलिष्ठ एवं सुगठित शरीर वाले हुए। उनके पिता ने प्रत्येक को जम्बूद्वीप का एक-एक भाग दे दिया। इन राज्यों के नाम पुत्रों के नामों के अनुसार पड़े। इस प्रकार आग्नीध्र के सभी पुत्र पिता से प्राप्त राज्यों पर राज्य करने लगे।
तात्पर्य
आचार्यों ने इस श्लोक के मातु: अनुग्रहात् शब्दों का विशेष उल्लेख करते हुए इनका अर्थ “उनकी माँ का स्तन-दुग्ध” किया है। भारतवर्ष में यह आम विश्वास है कि यदि माँ अपने बच्चे को छह मास तक अपने स्तनों का दूध पिलाती है, तो बच्चे का शरीर अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट रहता है। इसके अतिरिक्त इस श्लोक में यह भी इंगित है कि आग्नीध्र के सभी पुत्रों की प्रकृति अपनी माँ के समान थी। भगवद्गीता की भी (१.४०) घोषणा है—स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्कर:—दूषित स्त्री से वर्णसंकर (अयोग्य) पुत्र उत्पन्न होते हैं और जब वर्णसंकर जनसंख्या बढ़ती है, तो यह संसार नरक बन जाता है। अत: मनुसंहिता के अनुसार स्त्री को पवित्र तथा साध्वी रहने के लिए काफी संरक्षण की आवश्यकता होती है, जिससे उसकी सन्तान मानव समाज के कल्याण में तत्पर हो सके।
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