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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  5.2.22 
आग्नीध्रो राजातृप्त: कामानामप्सरसमेवानुदिनमधिमन्यमानस्तस्या: सलोकतां श्रुतिभिरवारुन्ध यत्र पितरो मादयन्ते ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
आग्नीध्र:—आग्नीध्र; राजा—राजा; अतृप्त:—असन्तुष्ट; कामानाम्—इन्द्रियभोग से; अप्सरसम्—स्वर्ग सुन्दरी (पूर्वचित्ति) के विषय में; एव—निश्चय ही; अनुदिनम्—दिनोंदिन; अधि—अत्यधिक; मन्यमान:—सोचते हुए; तस्या:—उसका; स लोकताम्—उसी लोक को; श्रुतिभि:—वेदों से; अवारुन्ध—प्राप्त किया; यत्र—जहाँ; पितर:—पूर्वज, पितृगण; मादयन्ते— आनन्द लेते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 पूर्वचित्ति के चले जाने पर, अतृप्त वासना के कारण राजा आग्नीध्र उसी के विषय में सोचते रहते। अत: वैदिक आज्ञाओं के अनुसार राजा मृत्यु के पश्चात् उसी लोक में गये जहाँ उनकी पत्नी थी। यह लोक पितृलोक कहलाता है जहाँ कि पितरगण अत्यन्त आनन्द से रहते हैं।
 
तात्पर्य
 यदि कोई किसी के विषय में निरन्तर सोचता है, तो मृत्यु के उपरान्त उसे वैसा ही शरीर प्राप्त होता है। महाराज आग्नीध्र सदा पितृलोक के विषय में सोच रहे थे, जहाँ उनकी पत्नी पहुँची थी, इसलिए मृत्यु के बाद उन्हें वह लोक मिला, जिससे वे उसके साथ पुन: रह सकें। भगवद्गीता का (८.६) भी कथन है—

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ॥

“जीव अपना शरीर त्यागते समय जिस किसी भाव (दशा) का स्मरण करता है, वह उसे निश्चय ही प्राप्त करता है।” अत: हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यदि हम निरन्तर श्रीकृष्ण का स्मरण करें, अथवा पूर्णत: कृष्णभावनाभावित हो जाँय, तो हमें गोलोक वृन्दावन प्राप्त हो सकता है जहाँ श्रीकृष्ण निरन्तर वास करते हैं।

 
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