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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  5.2.5 
तस्या: सुललितगमनपदविन्यासगतिविलासायाश्चानुपदं खणखणायमानरुचिरचरणाभरणस्वनमुपाकर्ण्य नरदेवकुमार: समाधियोगेनामीलितनयननलिनमुकुलयुगलमीषद्विकचय्य व्यचष्ट ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
तस्या:—उस (पूर्वचित्ति) के; सुललित—अत्यन्त सुन्दर; गमन—चाल; पद-विन्यास—चलने की शैली से; गति—आगे आगे; विलासाया:—जिनकी लीला; —भी; अनुपदम्—प्रत्येक पग से; खण-खणायमान—झंकार करते हुए; रुचिर—अत्यन्त मनोहर; चरण-आभरण—चरणों के आभूषण; स्वनम्—ध्वनि को; उपाकर्ण्य—सुनकर; नरदेव-कुमार:—राजकुमार ने; समाधि—समाधि दशा; योगेन—इन्द्रियों को नियंत्रित करके; आमीलित—अधखुले; नयन—नेत्र; नलिन—कमल की; मुकुल—कलियाँ; युगलम्—एक जोड़े के समान; ईषत्—कुछ-कुछ; विकचय्य—खोलकर; व्यचष्ट—देखा ।.
 
अनुवाद
 
 ज्योंही अत्यन्त मनोहर गति तथा हावभाव से युक्त पूर्वचित्ति उस पथ से निकली त्योंही प्रत्येक पग पर उसके चरण-नूपुरों की झंकार निकलने लगी। यद्यपि राजकुमार आग्नीध्र अधखुले नेत्रों से योग साध कर इन्द्रियों को वश में कर रहे थे, किन्तु अपने कमल सदृश नेत्रों से वे उसे देख सकते थे। तभी उन्हें उसके कंगनों की मधुर झंकार सुनाई दी। उन्होंने अपने नेत्रों को कुछ और खोला, तो देखा कि वह उनके बिल्कुल निकट थी।
 
तात्पर्य
 ऐसा कहा जाता है कि योगीजन सदैव भगवान् का ध्यान अपने हृदय में करते रहते हैं। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिन: (भागवत १२.१३.१)। विषमयी इन्द्रियों को वश में करने वाले योगी भगवान् का नित्य दर्शन करते हैं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, योगियों को सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रम्—अर्थात् अधखुले नेत्रों से साधना करनी चाहिए। यदि नेत्र पूर्णरूप से बन्द रहेंगे, तो नींद आ सकती है। किन्तु कुछ नामधारी योगी अपने नेत्रों को बन्द करके ध्यान धारण करते हैं। यह योग की“फैशनपरस्त विधि” है, किन्तु हमने ऐसे योगियों को ध्यान के समय सोते तथा खर्राटे लेते सुना है। यह योग की विधि नहीं है। वास्तविक योग साधने के लिए नेत्रों को अधखुला रखते हुए नासिका के अगले भाग को देखना चाहिए।

यद्यपि प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र योगाभ्यास कर रहे थे और प्रयास कर रहे थे अपनी इन्द्रियों को वश में करने के लिए, किन्तु पूर्वचित्ति के नूपुरों की झंकार से उनका ध्यान टूट गया। योग इन्द्रियसंयम:—वास्तविक योग का अर्थ है इन्द्रियों का नियंत्रण। मनुष्य को इन्द्रियों को वश में करने के लिए योगाभ्यास करना चाहिए, किन्तु भक्त अपनी शुद्ध इन्द्रियों से ईश्वर की सेवा में तत्पर रहता है, अत: उसका ध्यान भंग नहीं हो सकता (हृषीकेण हृषीकेश-सेवनम् )। अत: श्रील प्रबोधानन्द सरस्वती ने कहा है—दुर्दान्तेन्द्रिय-काल-सर्पपटली प्रोत्खात-दंष्ट्रायते (चैतन्य-चन्द्रामृत ५)। निस्सन्देह योग्याभ्यास उपयोगी है, क्योंकि इससे विषधर तुल्य इन्द्रियाँ वशीभूत होती हैं। किन्तु जब कोई अपनी समस्त इन्द्रियों को ईश्वर की सेवा में लगाकर भक्ति करता है, तो इन्द्रियों का विषैलापन दूर हो जाता है। यह व्याख्या की जाती है कि सर्प से उसके विषदंतों के कारण डरा जाता है, किन्तु यदि उसके दाँतों को तोड़ दिया जाये तो सर्प भले ही डरावना लगे, किन्तु घातक नहीं होता। अत: भक्तों के समक्ष भले ही हावभाव तथा सुललित भाव-भंगिमा करने वाली सैकड़ों-हजारों सुन्दरियाँ क्यों न उपस्थित हो जाँए, वे मोहित नहीं होते जबकि सामान्य योगी ऐसी सुन्दरियों से विपथ हो जाते हैं। यहाँ तक कि सिद्ध योगी विश्वामित्र ने मेनका से संभोग करने के लिए अपना योग भंग किया और उससे शकुन्तला उत्पन्न हुई। अत: योग का अभ्यास इन्द्रियों को वश में करने में पूर्ण समर्थ नहीं है। दूसरा उदाहरण आग्नीध्र का है जिनका ध्यान पूर्वचित्ति नामक अप्सरा के नुपूरों की मधुर झंकार से उसी तरह टूट गया जिस तरह विश्वामित्र का ध्यान मेनका की चूडिय़ों की खनक से टूट गया था। राजकुमार स्वयं अत्यन्त सुन्दर था। जैसा यहाँ वर्णित है उसके नेत्र कमल की कली के समान थे और उसकी सुन्दर गति को देखने के लिए उस ने तुरन्त अपनी आँखें खोल ली। ज्योंही उसने अपने कमल-नेत्र खोले, तो देखा कि अप्सरा उसके पास ही उपस्थित है।

 
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