श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  5.2.6 
तामेवाविदूरे मधुकरीमिव सुमनस उपजिघ्रन्तीं दिविजमनुजमनोनयनाह्लाददुघैर्गतिविहारव्रीडाविनयावलोकसुस्वराक्षरावयवैर्मनसि नृणां कुसुमायुधस्य विदधतीं विवरं निजमुख विगलितामृतासवसहासभाषणामोदमदान्धमधुकरनिकरोपरोधेन द्रुतपदविन्यासेन वल्गुस्पन्दनस्तनकलशकबरभाररशनां देवीं तदवलोकनेन विवृतावसरस्य भगवतो मकरध्वजस्य वशमुपनीतो जडवदिति होवाच ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
ताम्—उसको; एव—निस्संदेह; अविदूरे—निकट ही; मधुकरीम् इव—मधुमक्खी के समान; सुमनस:—सुन्दर फूल; उपजिघ्रन्तीम्—सूँघती हुई; दिवि-ज—स्वर्गलोक में उत्पन्न होने वालों का; मनु-ज—मर्त्यलोक में जन्म लेने वालों का; मन:— मन; नयन—नेत्रों के लिए; आह्लाद—प्रसन्नता; दुघै:—उत्पन्न करती हुई; गति—अपनी चाल से; विहार—आमोद-प्रमोद से; व्रीडा—लज्जा से; विनय—विनयशीलता से; अवलोक—चितवन से; सु-स्वर-अक्षर—अपनी मधुर वाणी से; अवयवै:—शरीर के अंगों से; मनसि—मन में; नृणाम्—मनुष्यों के; कुसुम-आयुधस्य—हाथ में पुष्प-धनुष धारण करने वाले कामदेव का; विदधतीम्—करती हुई; विवरम्—कर्णगत; निज-मुख—अपने मुँह से; विगलित—उड़ेलती हुई; अमृत-आसव—मधु सदृश अमृत; स-हास—अपने हँसी में; भाषण—तथा बोलने में; आमोद—प्रसन्नता से; मद-अन्ध—नशे में अन्धा हुआ; मधुकर— मधुमक्खियों का; निकर—समूह; उपरोधेन—उसके चारों ओर से घिरे होने से; द्रुत—शीघ्रगामी; पद—पाँव का; विन्यासेन— भावपूर्ण पद चाप से; वल्गु—कुछ; स्पन्दन—गति; स्तन—उरोज; कलश—जल पात्र सदृश; कबर—बालों की चोटी; भार— भार; रशनाम्—करधनी; देवीम्—देवी को; तत्-अवलोकनेन—उसकी दृष्टि मात्र से; विवृत-अवसरस्य—अवसर पाकर; भगवत:—सर्वशक्तिमान का; मकर-ध्वजस्य—कामदेव का; वशम्—वश में; उपनीत:—लाया जाकर; जड-वत्—जड़ के समान; इति—इस प्रकार; ह—निश्चय ही; उवाच—वह बोला ।.
 
अनुवाद
 
 वह अप्सरा सुन्दर तथा आकर्षक फूलों को मधुमक्खी के समान सूँघ रही थी। वह अपनी चपल गति, लज्जा, विनय, चितवन तथा मुख से निकलने वाली मधुर ध्वनि और अपने अंगों की गति से मनुष्यों तथा देवताओं के मन तथा ध्यान को आकर्षित करने वाली थी। इन सब गुणों के कारण उसने मनुष्यों के मनों में कुसुम धनुषधारी कामदेव के स्वागतार्थ कानों के मार्ग खोल दिये थे। जब वह बोलती, तो उसके मुख से अमृत झरता था। उसके श्वास लेने पर श्वास का स्वाद लेने के लिए भौंरे मदान्ध होकर उसके कमलवत् नेत्रों के चारों ओर मँडराने लगते। इन भौंरों से विचलित होकर वह जल्दी-जल्दी चलने का प्रयत्न करने लगी, किन्तु जल्दी चलने के लिए पैर उठाते ही उसके केश, उसकी करधनी तथा उसके जलकलश तुल्य स्तन इस प्रकार गति कर रहे थे, जिससे वह अत्यन्त मनोहर एवं आकर्षक लग रही थी। दरअसल ऐसा प्रतीत होता था मानो वह अत्यन्त बलशाली कामदेव के लिए प्रवेश-मार्ग बना रही हो। अत: राजकुमार उसे देखकर पूर्णतया वशीभूत हो गया और उससे इस प्रकार बोला।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में अत्यन्त सुन्दर ढंग से यह वर्णन किया गया है कि किसी सुन्दर स्त्री की गति तथा हावभाव, उसके केश तथा उसके स्तनों, नितम्बों और अन्य अंगों की रचना न केवल पुरुषों के मन को वरन् देवताओं के मन को भी मोह लेती है। दिविज तथा मनुज शब्द विशेष रूप से यह पुष्टि करते हैं कि स्त्रियों के संकेतों का आकर्षण न केवल इस लोक के प्राणियों को वरन् स्वर्गलोक के प्राणियों को भी मोहने वाला है। कहा जाता है कि स्वर्गलोक के प्राणियों का जीवन-स्तर मर्त्यलोक के जीवन-स्तर से कई हजार गुना उच्च है। अत: वहाँ की सुन्दर स्त्रियों का शरीर पृथ्वी पर रहने वाली स्त्रियों के शरीर से हजारों गुना अधिक लुभावना होगा। सृष्टिकर्ता ने स्त्रियों को इस प्रकार निर्मित किया है कि उनकी मधुर ध्वनि, चाल तथा उनके नितम्बों, उरोजों और अन्य अंगों का मनोहर रूप न केवल पृथ्वी पर के वरन् स्वर्ग तक के पुरुषों को आकर्षित करता है और उनमें काम-भाव जागरित हो उठते हैं। जब कोई पुरुष कामदेव अथवा स्त्री सौंदर्य के वशीभूत होता है, तो वह पत्थर के तुल्य जड़ हो जाता है। स्त्रियों के अंग-चालन से मोहित होकर पुरुष इसी भौतिक संसार में रहना चाहता है। इस प्रकार स्त्री के सुन्दर दर्शन तथा गति मात्र से वह वैकुंठ लोक नहीं जा पाता है। इसीलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने समस्त भक्तों को सुन्दरियों के आकर्षण एवं भौतिकतावादी सभ्यता से दूर रहने के लिए सचेत किया है। उन्होंने प्रतापरुद्र महाराज को देखने से भी इनकार कर दिया था, क्योंकि इस संसार में वह अत्यन्त ऐश्वर्यवान व्यक्ति था। इस सम्बन्ध में श्री चैतन्य महाप्रभु का कहना है—निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य—“जो ईश्वर की भक्ति में रत हैं और भगवान् के धाम वापस जाना चाहते हैं उन्हें स्त्रियों के सुन्दर हावभाव से तथा अत्यन्त धनी पुरुषों के दर्शन से दूर रहना चाहिए।”

निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य पारं परं जिगमिषोर्भवसागरस्य।

सन्दर्शनं विषयिणाम् अथ योषितां च हा हन्त हन्त विषभक्षणतोऽप्यसाधु ॥

“अहो! जो इस संसार-सागर को तरना चाहता है और भगवान् की निष्काम तथा दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा हुआ है उसके लिए इन्द्रियभोग में लिप्त भौतिकतावादी पुरुष या स्त्री का दर्शन स्वेच्छा से विषपान करने से भी जघन्य है।”(चैतन्य-चरितामृत मध्य ११.८)। अत: जो भगवान् के धाम को वापस जाना चाहता है उसे चाहिए कि वह स्त्री के आकर्षक अंगों तथा धनी पुरुषों की सम्पत्ति के विषय में तनिक भी न सोचे। ऐसा सोचने से आध्यात्मिक जीवन की प्रगति रुक जाती है। किन्तु यदि भक्त एक बार कृष्णभावनामृत में स्थिर हो गया, तो ये आकर्षण उसके मन को क्षुब्ध नहीं करते।

 
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