हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  5.2.7 
का त्वं चिकीर्षसि च किं मुनिवर्य शैले
मायासि कापि भगवत्परदेवताया: । विज्ये बिभर्षि धनुषी सुहृदात्मनोऽर्थेकिं वा मृगान्मृगयसे विपिने प्रमत्तान् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
का—कौन; त्वम्—तुम हो; चिकीर्षसि—क्या करना चाहते हो; —भी; किम्—क्या; मुनि-वर्य—हे मुनिश्रेष्ठ; शैले—इस पर्वत पर; माया—माया; असि—हो; कापि—कुछ; भगवत्—भगवान्; पर-देवताया:—दिव्य ईश्वर का; विज्ये—बिना डोरी के; बिभर्षि—धारण किये हुए; धनुषी—दो धनुष; सुहृत्—मित्र का; आत्मन:—अपने; अर्थे—हेतु; किम् वा—अथवा; मृगान्—जंगली पशु; मृगयसे—आखेट करने का प्रयत्न कर रहे हो; विपिने—इस वन में; प्रमत्तान्—धन से मतवालों का ।.
 
अनुवाद
 
 राजकुमार ने भूल से अप्सरा को सम्बोधित किया—हे मुनिवर्य, तुम कौन हो? इस पर्वत पर क्यों आये हो और क्या करना चाहते हो? क्या तुम भगवान् की कोई माया हो? तुम बिना डोरी वाले इन दो धनुषों को क्यों धारण किये हो? क्या इनसे कोई तुम्हारा प्रयोजन है या अपने मित्र के लिए इन्हें धारण किये हुए हो? सम्भवत: तुम इन्हें इस वन के मतवाले (पागल) पशुओं को मारने के लिए धारण किये हो।
 
तात्पर्य
 वन में कठिन तपस्या करते हुए आग्नीध्र ब्रह्मा द्वारा भेजी गई पूर्वचित्ति की भंगिमाओं से मोहित हो गये। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है—कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना:—कामी पुरुष अपनी बुद्धि गँवा बैठता है। अत: बुद्धि खोने के पश्चात् आग्नीध्र स्त्री तथा पुरुष में अन्तर नहीं कर पाये। उन्होंने उसे मुनि-पुत्र समझा इसलिए उसे मुनिवर्य कह कर सम्बोधित किया। किन्तु उसकी सुन्दरता के कारण उन्हें विश्वास नहीं हो पाया कि वह किशोर है, अत: उन्होंने उसके अंगों को ध्यान से देखना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्हें उसकी दो भौंहें दिखाई पड़ीं जिनको देख कर उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं वह भगवान् की माया तो नहीं है। इसके लिए भगवत्-पर-देवताया: शब्दों का प्रयोग हुआ है। देवता अर्थात् देवतागण इस भौतिक जगत से सम्बन्धित हैं, किन्तु भगवान् इस भौतिक लोक से परे रहते हैं, अत: पर-देवता कहलाते हैं। यह भौतिक जगत माया के द्वारा सृजित है, किन्तु पर-देवता भगवान् के आदेश के अनुसार इसका सृजन होता है। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि की गई है (मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ), इस संसार की सृष्टि का परम नियन्ता माया नहीं है। माया श्रीकृष्ण की ओर से कर्म करती है।

पूर्वचित्ति की भौंहें इतनी सुन्दर थीं कि आग्नीध्र ने उनकी तुलना डोरी विहीन धनुषों से की। इसलिए उन्होंने पूछा कि वे उसके अपने प्रयोजन के लिए थे, अथवा किसी अन्य के लिए थे। उसकी भौंहें वन के पशुओं को मारने के लिए प्रयुक्त धनुषों जैसी थीं। यह संसार वन के तुल्य है और उसके निवासी वन के पशुओं यथा हिरन तथा बाघ जैसे हैं जिनका शिकार किया जाता है। सुन्दर स्त्री की भौंहें ही उन्हें मारने वाली हैं। स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर संसार के सभी मनुष्य बिना डोरी वाले धनुष से मार दिये जाते हैं, किन्तु कोई यह नहीं देख पाता कि माया उन्हें किस प्रकार मारती है। पर यथार्थ में वे मारे जाते हैं (भूत्वा भूत्वा प्रलीयते )। अपनी तपस्या से आग्नीध्र जान सके कि भगवान् के आदेश से माया किस प्रकार कार्य करती है।

प्रमत्तान् शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। प्रमत्त का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो अपनी इन्द्रियों को अपने वश में नहीं कर पाता। समस्त संसार ऐसे ही प्रमत्त या विमूढ़ व्यक्तियों द्वारा शोषित हो रहा है। अत: प्रह्लाद महाराज ने कहा है (भागवत ७.९.४३)—

शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थ- मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान्।

“वे क्षणिक सुख के लिए विषयों में सड़ते रहते हैं और इन्द्रिय भोग के लिए ही दिन-रात श्रम करते हुए जीवन नष्ट कर रहे हैं, उन्हें ईश्वर से किसी प्रकार का लगाव नहीं रहता। मैं उन्हीं के लिए शोचमग्न हूँ और उन्हें माया के चंगुल से मुक्त करने की विभिन्न युक्तियाँ सोच रहा हूँ।” शास्त्रों में इन्द्रियतुष्टि के लिए कर्म करने वाले कर्मियों को प्रमत्त, विमुख तथा विमूढ़ कहा गया है। ये माया के द्वारा मारे जाते हैं। किन्तु जो अप्रमत्त अथवा धीर हैं, वे भली भाँति जानते रहते हैं कि मनुष्य का मुख्य कर्तव्य परम पुरुष की सेवा करना है। जो माया के अदृश्य धनुष तथा बाण से प्रमत्त हैं उन्हें वह मारने के लिए सदा तत्पर रहती है। आग्नीध्र ने पूर्वचित्रि से इस सबके बारे में पूछा।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥