यावत्—जहाँ तक; मानसोत्तर-मेर्वो: अन्तरम्—मानसोत्तर तथा मेरु के बीच की भूमि (सुमेरु पर्वत के मध्य से प्रारम्भ); तावती—वहाँ तक; भूमि:—भूमि; काञ्चनी—स्वर्णनिर्मित; अन्या—अन्य; आदर्श-तल-उपमा—जिसका तल दर्पण की तरह है; यस्याम्—जिस पर; प्रहित:—गिराई हुई; पदार्थ:—वस्तु; न—नहीं; कथञ्चित्—किसी प्रकार से; पुन:—फिर; प्रत्युपलभ्यते— पाई जाती है; तस्मात्—अत:; सर्व-सत्त्व—सारे जीवों द्वारा; परिहृता—परित्यक्त; आसीत्—थी ।.
अनुवाद
मृदुल जल के सागर से आगे सुमेरु पर्वत के मध्य से लेकर मानसोत्तर पर्वत की सीमा तक जितना अन्तर है उतनी भूमि है। उस भूभाग में अनेक प्राणी रहते हैं। उसके आगे लोकालोक पर्वत तक फैली हुई दूसरी भूमि है जो स्वर्णमय है। स्वर्णमय सतह के कारण यह दर्पण की तरह सूर्य प्रकाश को परावर्तित कर देती है, अत: इसमें गिरी हुई वस्तु पुन: नहीं दिखाई पड़ती। फलत: सभी प्राणियों ने इस स्वर्णमयी भूमि का परित्याग कर दिया है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥