एतावान्—इतना; लोक-विन्यास:—विभिन्न लोकों का वितरण; मान—परिमाप; लक्षण—लक्षण, चिह्न; संस्थाभि:—तथा उनकी विभिन्न स्थितियाँ; विचिन्तित:—वैज्ञानिक गणनाओं द्वारा निश्चित की गई; कविभि:—विद्वानों के द्वारा; स:—वह; तु— लेकिन; पञ्चाशत्-कोटि—पचास करोड़ योजन; गणितस्य—गणना करने पर; भू-गोलस्य—भूगोलक नामक लोक का; तुरीय-भाग:—चतुर्थांश; अयम्—यह; लोकालोक-अचल:—लोकालोक नामक पर्वत ।.
अनुवाद
त्रुटि, भ्रम तथा वंचना से मुक्त विद्वानों ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार लोकों का इतना ही विस्तार बतलाया है। उन्होंने विचार-विमर्श के बाद यह स्थापना की है कि सुमेरु तथा लोकालोक पर्वत की दूरी ब्रह्माण्ड के व्यास की चतुर्थांश अर्थात् १२,५०,००० (साढ़े बारह करोड़) योजन (एक अरब मील) है।
तात्पर्य
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने लोकालोक पर्वत की स्थिति, सूर्य गोलक की गतियों तथा सूर्य एवं ब्रह्माण्ड की परिधि के बीच की दूरी के सम्बन्ध में सही-सही ज्योतिषीय वैज्ञानिक जानकारी प्रस्तुत की है। किन्तु ज्योतिर्वेद द्वारा इन गणनाओं में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का अंग्रेजी में अनुवाद कर पाना कठिन है। अत: पाठकों को सन्तुष्ट करने के लिए हम श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा संस्कृत में दिए गये कथन को यथावत् उद्धृत कर रहे हैं—