सूर्यसोमाग्निवारीशविधातृषु यथाक्रमम्। प्लक्षादिद्वीपसंस्थासु स्थितं हरिमुपासते ॥ सम्पूर्ण सृष्टि में अनेक भूभाग, खेत, पहाड़ तथा सागर पाये जाते हैं और सर्वत्र ही श्रीभगवान् विभिन्न नामों से पूजे जाते हैं। श्रील वीरराघव आचार्य ने श्रीमद्भागवत के इस श्लोक की व्याख्या इस प्रकार की है—विराट जगत के मूल कारण अवश्य ही पुरातन पुरुष हैं और वे भौतिक रूपान्तर से परे होने चाहिए। वे ही समस्त शुभ कार्यों के भोक्ता हैं और इस बद्ध जीवन तथा मुक्ति के कारण भी वे ही हैं। सूर्यदेव की गणना परम शक्तिशाली जीव अथवा जीवात्मा के रूप में की गई है जो उनके शरीर के एक अंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। हम स्वभावत: शक्तिशाली जीवों के वश में हैं, अत: हम विभिन्न देवताओं की उपासना ऐसे जीवों के रूप में कर सकते हैं, जो श्रीभगवान् के शक्तिशाली प्रतिनिधि हैं। यद्यपि इस मंत्र में सूर्यदेवता की उपासना के लिए कहा गया है, किन्तु उनकी उपासना श्रीभगवान् के रूप में नहीं वरन् उनके शक्तिशाली प्रतिनिधि रूप में की जाती है। कठ उपनिषद् (१.३.१) में कहा गया है— ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे। छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेता: ॥ “हे नाचिकेता! सूक्ष्म जीवात्मा तथा परमात्मा के रूप में विष्णु के ये दोनों अंश इस शरीर की हृदय-गुहा में स्थित हैं। इस गुहा में प्रवेश करके जीवात्मा प्राणवायु पर आधारित रह कर कर्मों के फल का भोग करता है और परमात्मा साक्षी बनकर उसे भोग करने देता है। ब्रह्म-ज्ञानियों तथा वैदिक नियमों का पालन करने वाले गृहस्थों का कहना है कि इन दोनों में वैसा ही अन्तर है जैसाकि सूर्य तथा उसकी छाया में।” श्वेताश्वतर उपनिषद् (६.१६) में कहा गया है— स विश्वकृद् विश्वविदात्मयोनि: ज्ञ: कालाकारो गुणी सर्वविद् य:। प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेश: संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतु: ॥ “इस जगत का सृष्टिकर्ता परमात्मा अपनी सृष्टि का कोना-कोना पहचानता है। यद्यपि वह इसका कारण है, किन्तु उसके प्रकट होने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह सर्वज्ञाता है। वह परमात्मा, समस्त दिव्य गुणों का स्वामी तथा इस जगत के बन्धन और मोक्ष का भी स्वामी है।” इसी प्रकार तैत्तिरीय उपनिषद् (२.८) में कहा गया है— भीषास्माद्वात: पवते भीषोदेति सूर्य:। भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चम: ॥ “परब्रह्म के भय से वायु बहती है, सूर्य उदय-अस्त होता है और अग्नि प्रज्ज्वलित होती है। उसी के भय से मृत्यु तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र अपना-अपना कार्य करते हैं।” जैसाकि इस अध्याय में वर्णित है, प्लक्षद्वीप इत्यादि पाँच द्वीपों के वासी क्रमश: सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु तथा ब्रह्मा की उपासना इत्यादि करते हैं। यद्यपि वे इन पाँचों देवताओं की उपासना करते हैं, किन्तु वास्तव में वे समस्त जीवों के परमात्मा श्रीभगवान् विष्णु को ही उपासते हैं, जैसाकि इस श्लोक के इन शब्दों से प्रकट है—प्रत्नस्य विष्णो रूपम्। विष्णु ब्रह्म हैं, अमृत हैं, मृत्यु हैं—वे परब्रह्म हैं और शुभ तथा अशुभ सभी वस्तुओं के मूल हैं। वे सबों के हृदय में स्थित हैं, जिनमें देवता भी सम्मिलित हैं। जैसाकि भगवद्गीता (७.२०) में कहा गया है—कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:—कामनाओं ने जिनके ज्ञान को हर लिया है, वे ही अन्य देवताओं की शरण ग्रहण करते हैं। जो महत्त्वाकांक्षाओं के कारण अंधे होते हैं, उन्हें अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए देवताओं की उपासना की सलाह दी जाती है, किन्तु देवता उनकी मनोकामनाओं को वास्तव में पूरा नहीं कर पाते। सभी देवता उतना की कर पाते हैं जितने की भगवान् विष्णु उन्हें आज्ञा देते हैं। जो अत्यधिक लालची होते हैं, वे विष्णु को न पूजकर अनेक देवताओं की पूजा करते हैं, किन्तु वास्तव में वे भगवान् विष्णु की ही उपासना करते हैं, क्योंकि वे ही समस्त देवताओं के परमात्मा हैं। |