श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 21: सूर्य की गतियों का वर्णन  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  5.21.13 
यस्यैकं चक्रं द्वादशारं षण्नेमि त्रिणाभि संवत्सरात्मकं समामनन्ति तस्याक्षो मेरोर्मूर्धनि कृतो मानसोत्तरे कृतेतरभागो यत्र प्रोतं रविरथचक्रं तैलयन्त्रचक्रवद् भ्रमन्मानसोत्तरगिरौ परिभ्रमति ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
यस्य—जिसका; एकम्—एक; चक्रम्—चक्र; द्वादश—बारह; अरम्—अरे, तीलियाँ; षट्—छ:; नेमि—नेमि (रिम); त्रि- णाभि—नाभि (हब) के तीन खंड (आँवन); संवत्सर-आत्मकम्—संवत्सर स्वरूप; समामनन्ति—पूर्णतया वर्णन करते हैं; तस्य—सूर्यदेव का रथ; अक्ष:—धुरी (एक्सल); मेरो:—सुमेरु पर्वत की; मूर्धनि—चोटी पर; कृत:—स्थिर; मानसोत्तरे— मानसोत्तर पर्वत पर; कृत—जड़ा हुआ, लगा; इतर-भाग:—दूसरा सिरा; यत्र—जहाँ; प्रोतम्—लगा हुआ; रवि-रथ-चक्रम्— सूर्यदेव के रथ का चक्र; तैल-यन्त्र-चक्र-वत्—कोल्हू के समान; भ्रमत्—घूमते हुए; मानसोत्तर-गिरौ—मानसोत्तर पर्वत पर; परिभ्रमति—घूमता है ।.
 
अनुवाद
 
 सूर्यदेव के रथ में एक ही चक्र है, जिसे संवत्सर कहते हैं। बारहों महीने इसके बारह अरे, छह ऋतु, छ: नेमियाँ (हाल) तथा तीन चार्तुमास इसके तीन भागों में विभाजित आँवने (नाभि) हैं। चक्र को धारण करने वाले धुरे का एक सिरा सुमेरु पर्वत की चोटी पर और दूसरा सिरा मानसोत्तर पर्वत पर टिका है। धुरे के बाहरी सिरे पर लगा यह पहिया कोल्हू के चक्र की भाँति निरन्तर मानसोत्तर पर्वत के चक्कर लगाता है।
 
 
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