श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 21: सूर्य की गतियों का वर्णन  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  5.21.15 
रथनीडस्तु षट्‌त्रिंशल्लक्षयोजनायतस्तत्तुरीयभागविशालस्तावान् रविरथयुगो यत्र हयाश्छन्दोनामान: सप्तारुणयोजिता वहन्ति देवमादित्यम् ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
रथ-नीड:—रथ का भीतरी भाग; तु—लेकिन; षट्-त्रिंशत्-लक्ष-योजन-आयत:—३६,००,००० योजन लम्बा; तत्-तुरीय भाग—इसका चौथाई भाग (९,००,००० योजन); विशाल:—चौड़ाई वाला; तावान्—तथा इतना ही; रवि-रथ-युग:—घोड़े के लिए जुआँ; यत्र—जहाँ; हया:—घोड़े; छन्द:-नामान:—वैदिक छन्दों के विभिन्न नाम वाले; सप्त—सात; अरुण योजिता:—अरुणदेव द्वारा नाधे गये; वहन्ति—ले जाते हैं; देवम्—देवता; आदित्यम्—सूर्यदेव को ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, रथ का भीतरी भाग ३६,००,००० योजन (२,८८,००,००० मील) लम्बा तथा इसका एक चौथाई चौड़ा ९,००,००० योजन तथा ७२,००,०००) है। रथ के घोड़ों के नाम गायत्री आदि वैदिक छन्दों पर रखे गये हैं और उन्हें अरुणदेव ऐसे जुएँ में जोतता है जो ९,००,००० योजन चौड़ा है। यह रथ लगातार सूर्यदेव को लिये रहता है।
 
तात्पर्य
 विष्णु पुराण में कहा गया है—

गायत्री च बृहत्युष्णिग् जगती त्रिष्टुपेव च।

अनुष्टुप-पंक्तिरित्युक्ताश्छंदांसि हरयो रवे: ॥

सूर्यदेव के रथ में जुते सातों घोड़े गायत्री, बृहति, जगती, उष्णिक्, त्रिष्टुप, अनुष्टुप तथा पंक्ति कहलाते हैं। विभिन्न वैदिक छन्द सूर्य के रथ को खींचने वाले सातों अश्वों के परिचायक हैं।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥