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श्लोक |
पुरस्तात्सवितुररुण: पश्चाच्च नियुक्त: सौत्ये कर्मणि किलास्ते ॥ १६ ॥ |
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शब्दार्थ |
पुरस्तात्—सम्मुख; सवितु:—सूर्यदेव के; अरुण:—अरुण नामक देवता; पश्चात्—पीछे देखता हुआ; च—तथा; नियुक्त:— संलग्न; सौत्ये—रथ के; कर्मणि—कार्य में; किल—निश्चय ही; आस्ते—रहता है ।. |
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अनुवाद |
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यद्यपि अरुणदेव सूर्यदेव के सम्मुख बैठ कर रथ को हाँकते हैं तथा घोड़ों को वश में रखते हैं, तो भी वे पीछे की ओर सूर्यदेव को देखते रहते हैं। |
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तात्पर्य |
वायुपुराण में घोड़ों की स्थिति का वर्णन हुआ है— |
सप्ताश्वरूपच्छन्दांसि वहन्ते वामतो रविम्। चक्रपक्षनिबद्धानि चक्रेवाक्ष: समाहित: ॥ यद्यपि अरुणदेव सबसे आगे के आसन पर आसीन होकर घोड़ों को वश में रखते हैं, किन्तु वे अपनी बाईं ओर से पीछे मुडक़र सूर्यदेव को देखते रहते हैं। |
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