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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 21: सूर्य की गतियों का वर्णन  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  5.21.16 
पुरस्तात्सवितुररुण: पश्चाच्च नियुक्त: सौत्ये कर्मणि किलास्ते ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
पुरस्तात्—सम्मुख; सवितु:—सूर्यदेव के; अरुण:—अरुण नामक देवता; पश्चात्—पीछे देखता हुआ; —तथा; नियुक्त:— संलग्न; सौत्ये—रथ के; कर्मणि—कार्य में; किल—निश्चय ही; आस्ते—रहता है ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि अरुणदेव सूर्यदेव के सम्मुख बैठ कर रथ को हाँकते हैं तथा घोड़ों को वश में रखते हैं, तो भी वे पीछे की ओर सूर्यदेव को देखते रहते हैं।
 
तात्पर्य
 वायुपुराण में घोड़ों की स्थिति का वर्णन हुआ है—

सप्ताश्वरूपच्छन्दांसि वहन्ते वामतो रविम्।

चक्रपक्षनिबद्धानि चक्रेवाक्ष: समाहित: ॥

यद्यपि अरुणदेव सबसे आगे के आसन पर आसीन होकर घोड़ों को वश में रखते हैं, किन्तु वे अपनी बाईं ओर से पीछे मुडक़र सूर्यदेव को देखते रहते हैं।

 
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