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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 22: ग्रहों की कक्ष्याएँ  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  5.22.16 
तत उपरिष्टाद्योजनलक्षद्वयात्प्रतीयमान: शनैश्चर एकैकस्मिन् राशौ त्रिंशन्मासान् विलम्बमान: सर्वानेवानुपर्येति तावद्भ‍िरनुवत्सरै: प्रायेण हि सर्वेषामशान्तिकर: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—वह (बृहस्पति); उपरिष्टात्—ऊपर; योजन-लक्ष-द्वयात्—२,००,००० योजन (१६,००,००० मील) की दूरी से; प्रतीयमान:—अवस्थित है; शनैश्चर:—शनिश्चर ग्रह; एक-एकस्मिन्—एक के पश्चात् एक; राशौ—राशि में; त्रिंशत् मासान्— तीस मास तक; विलम्-बमान:—विलम्ब करते हुए, रुकते हुए; सर्वान्—सभी बारह राशियाँ; एव—ही; अनुपर्येति—को पार करता है; तावद्भि:—उतने; अनुवत्सरै:—अनुवत्सरों से; प्रायेण—प्राय:; हि—निस्सन्देह; सर्वेषाम्—समस्त वासियों के लिए; अशान्तिकर:—अत्यधिक कष्टकारक ।.
 
अनुवाद
 
 बृहस्पति से २,००,००० योजन अर्थात् १६,००,००० मील और पृथ्वी से १,२०,००,००० मील ऊपर शनिग्रह स्थित है जो तीस-तीस मास में प्रत्येक राशि से होकर जाता है और तीस अनुवत्सरों में सम्पूर्ण राशिवृत्त पूरा करता है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए अत्यन्त अशुभ है।
 
 
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