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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 23: शिशुमार ग्रह-मण्डल  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  5.23.3 
यथा मेढीस्तम्भ आक्रमणपशव: संयोजितास्त्रिभिस्त्रिभि: सवनैर्यथास्थानं मण्डलानि चरन्त्येवं भगणा ग्रहादय एतस्मिन्नन्तर्बहिर्योगेन कालचक्र आयोजिता ध्रुवमेवावलम्ब्य वायुनोदीर्यमाणा आकल्पान्तं परिचङ्‍क्रमन्ति नभसि यथा मेघा: श्येनादयो वायुवशा: कर्मसारथय: परिवर्तन्ते एवं ज्योतिर्गणा: प्रकृतिपुरुषसंयोगानुगृहीता: कर्मनिर्मितगतयो भुवि न पतन्ति ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस प्रकार; मेढीस्तम्भे—मध्यवर्ती-स्तम्भ में; आक्रमण-पशव:—कोल्हू चलाने वाले बैल; संयोजिता:—जोते जाकर; त्रिभि: त्रिभि:—तीन तीन करके; सवनै:—गतियों के द्वारा; यथा-स्थानम्—अपने-अपने स्थानों पर; मण्डलानि—मंडल, चक्कर; चरन्ति—पार करते हैं; एवम्—उसी प्रकार; भ-गणा:—सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति इत्यादि ज्योतिर्गण; ग्रह-आदय:— विभिन्न ग्रह; एतस्मिन्—इसमें; अन्त:-बहि:-योगेन—भीतरी अथवा बाहरी चक्कर के साथ सम्बन्ध होने से; काल-चक्रे—अनन्त कालचक्र में; आयोजिता:—बँधा हुआ; ध्रुवम्—ध्रुवलोक; एव—निश्चय ही; अवलम्ब्य—आधार बनाकर; वायुना—वायु द्वारा; उदीर्यमाणा:—चक्राकार घुमाये जाकर; आ-कल्प-अन्तम्—कल्प के अन्त तक; परिचङ् क्रमन्ति—चारों ओर चक्कर लगाता है; नभसि—आकाश में; यथा—सदृश; मेघा:—घने बादल; श्येन-आदय:—बाज जैसे पक्षी; वायु-वशा:—वायु के द्वारा चालित; कर्म-सारथय:—अपने पूर्व कर्म रूपी सारथी; परिवर्तन्ते—चारों ओर घूमते हैं; एवम्—इस प्रकार; ज्योति:-गणा:—आकाश के ग्रह, नक्षत्र ज्योति-पिण्ड; प्रकृति—प्राकृतिक; पुरुष—तथा परम-पुरुष, कृष्ण का; संयोग-अनुगृहीता:—संयुक्त प्रयत्नों के द्वारा ग्रहण किया हुआ; कर्म-निर्मित—कर्मों के द्वारा उत्पन्न; गतय:—जिसकी गतियाँ; भुवि—भूमि पर; —नहीं; पतन्ति— गिरते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 यदि बैलों को एकसाथ नाधकर उन्हें एक मध्यवर्ती आधार-स्तम्भ से बाँधकर भूसे पर घुमाया जाता है, तो वे अपनी स्थिति से हटे बिना चक्कर लगाते रहते हैं—पहला बैल स्तम्भ के निकट रहता है, दूसरा बीच में और तीसरा बाहर की ओर। इसी प्रकार सभी ग्रह तथा सैकड़ों हजारों नक्षत्र भी ध्रुवतारे के चारों ओर ऊपर तथा नीचे स्थित अपनी-अपनी कक्ष्याओं में घूमते रहते हैं। वे अपने पूर्वकर्मों के अनुसार श्रीभगवान् द्वारा प्रकृति-यंत्र में बाँधे जाकर वायु द्वारा ध्रुवलोक के चारों ओर घुमाये जाते हैं और इस प्रकार कल्पान्त तक घूमते रहेंगे। ये ग्रह विशाल आकाश के भीतर वायु में वैसे ही तैरते रहते हैं, जिस प्रकार हजारों टन जल से लदे बादल वायु में तैरते रहते हैं, अथवा अपने पूर्वकर्मों के कारण बड़े-बड़े बाज आकाश में ऊँचाई तक उड़ते रहते हैं और भूमि पर कभी नहीं गिरते।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक के विवरण के अनुसार सैकड़ों हजारों नक्षत्र तथा सूर्य, चन्द्र, बुध, बृहस्पति, शुक्र जैसे बृहद् नक्षत्र न तो गुरुत्वाकर्षण के नियम द्वारा अथवा आधुनिक वैज्ञानिकों की अन्य किसी कल्पना द्वारा ही संपुंजित हैं। ये समस्त नक्षत्र एवं ग्रह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द अथवा कृष्ण के दासस्वरूप हैं और उनकी ही आज्ञा से अपने-अपने रथों में आरूढ़ होकर अपनी-अपनी कक्ष्याओं में घूमते रहते हैं। इन कक्ष्याओं की उपमा प्रकृति द्वारा नक्षत्र और लोकों के अधिपतियों को प्रदत्त यंत्रों से की गई है जो महाराज ध्रुव द्वारा शासित ध्रुवलोक के चारों ओर चक्कर लगा कर श्रीभगवान् के आदेशों का पालन करने वाले हैं। इसकी पुष्टि ब्रह्म-संहिता (५.५२) में इस प्रकार की गई है—

यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजा:।

यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

“मैं उन आदि पुरुष गोविन्द का भजन करता हूँ, जिनके आदेश से ईश्वर के चक्षु रूप सूर्य भी शाश्वत काल की स्थिर कक्ष्या में घूमता है। सूर्य समस्त नक्षत्रों का राजा है और उसमें उष्मा तथा प्रकाश की असीम शक्ति है।” ब्रह्म-संहिता के इस श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि सबसे बड़ा एवं सर्वशक्तिमान ग्रह सूर्य भी स्थिर कक्ष्या अथवा कालचक्र के अन्तर्गत श्रीभगवान् की आज्ञा से घूमता है। गुरुत्वाकर्षण या विज्ञानियों द्वारा बनाए गए अन्य काल्पनिक सिद्धान्तों से इसका कोई सरोकार नहीं है।

भौतिक विज्ञानी श्रीभगवान् के शासन से दूर रह कर नक्षत्रों की गति के लिए नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं। जिन के अन्तर्गत वे नक्षत्रों की गति को होना मानते हैं। किन्तु श्रीभगवान् का आदेश सर्वप्रमुख शर्त है। ग्रहों के प्रमुख देवता पुरुष हैं और भगवान् भी पुरुष (पूर्ण पुरुषोत्तम) हैं। श्रीभगवान् अपने अधीन विभिन्न नामधारी देवतोओं को आदेश देते हैं कि वे उनकी परम इच्छा का पालन करें। इसकी पुष्टि भगवद्गीता से (९.१०) हुई है, जिसमें श्रीकृष्ण का वचन है—

मयाध्यक्षेण प्रकृति सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥

“हे कुन्तीपुत्र! यह प्रकृति (माया) मेरी अध्यक्षता में कार्य करती हुई सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को उत्पन्न करती है। इसी कारण इस दृश्य जगत का बारम्बार सृजन एवं संहार होता है।” नक्षत्रों की कक्ष्याएँ उन शरीरों के समान हैं, जिनके भीतर जीवात्मा विद्यमान है क्योंकि दोनों ही श्रीभगवान् द्वारा संचालित यंत्र हैं। जैसाकि श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता (१८.६१) में कहा है— ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥

“हे अर्जुन, परमेश्वर प्राणीमात्र के हृदय में स्थित है। वही भौतिक-शक्ति रूपी यंत्र में आरूढ़ होकर सब जीवों को अपनी माया-शक्ति के द्वारा घुमा रहा है।” यह यंत्र, चाहे शरीर-यंत्र, कक्ष्यायंत्र अथवा कालचक्र हो, श्रीभगवान् के ही आदेशानुसार कार्य करता है। श्रीभगवान् तथा भौतिक प्रकृति दोनों ही मिलकर न केवल इस ब्रह्माण्ड का वरन् इससे परे लाखों ब्रह्माण्डों को बनाए रखते हैं।

इस श्लोक में इस प्रश्न का भी उत्तर मिल जाता है कि नक्षत्र तथा ग्रह किस प्रकार तैर रहे हैं। गुरुत्वाकर्षण का इसमें कोई हाथ नहीं है, वरन् नक्षत्र तथा ग्रह वायु के द्वारा तैर पाते हैं। इसी कारण आकाश में बड़े-बड़े बादल और बड़े-बड़े बाज पक्षी उड़ पाते हैं। आधुनिक वायुयान, यथा ७४७ जेटयान भी इसी प्रकार कार्य करते हैं—वे वायु को नियंत्रित करके, आकाश में ऊँचाई पर तैरते हैं और नीचे गिरते को रोकते हैं। इस प्रकार से वायु का नियंत्रण पुरुष और प्रकृति के सिद्धान्तों के सहयोग के द्वारा सम्भव हो पाता है। प्रकृति और पुरुष माने जाने वाले श्रीभगवान् के सहयोग से इस ब्रह्माण्ड के सारे कार्यकलाप सुचारु रूप से चलते रहते हैं। ब्रह्म-संहिता (५.४४) में प्रकृति का वर्णन इस प्रकार हुआ है—

सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा।

इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

“बहिरंगाशक्ति माया की, जो चित् शक्ति की छाया तुल्य है, सभी लोग दुर्गा के रूप में, जो संसार के सृजन, पालन तथा संहार करने वाली शक्ति है, आराधना करते हैं। मैं उन आदि पुरुष गोविन्द का भजन करता हूँ, जिनकी इच्छा से दुर्गा अपने सारे कार्य करती हैं।” प्रकृति परमेश्वर की बहिरंगाशक्ति दुर्गा अर्थात् नारी शक्ति के नाम से भी अभिहित है जो इस ब्रह्माण्ड रूपी दुर्ग की रक्षा करती है। दुर्गा शब्द का अर्थ दुर्ग भी है। यह ब्रह्माण्ड एक महान् दुर्ग के समान है, जिसमें बद्धजीव रखे गये हैं और वे तब तक इससे छुटकारा नहीं पा सकते जब तक श्रीभगवान् की दया-दृष्टि न हो। भगवद्गीता (४.९) में श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं—

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति ममेति सोऽर्जुन ॥

“हे अर्जुन! जो मनुष्य मेरा आविर्भाव और कर्म के दिव्य स्वभाव को जानता है, वह देह को त्याग कर संसार में फिर जन्म नहीं लेता, वरन् मेरे सनातन धाम को प्राप्त हो जाता है।” इस प्रकार केवल कृष्णभावनामृत के द्वारा भगवान् की कृपा से मुक्ति प्राप्त हो सकती है अर्थात् इस ब्रह्माण्ड रूपी दुर्ग से छुटकारा पाकर आध्यात्मिक जगत में जाया जा सकता है।

यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि बड़े से बड़े ग्रहों के प्रमुख अधिष्ठाता देवताओं को जो उच्च स्थान प्राप्त है, वह उनके पूर्वजन्मों में किये गये अत्यन्त मूल्यवान पुण्यकर्मों के फलस्वरूप है। इसका संकेत कर्म-निर्मित-गतय: शब्दों से मिलता है। उदाहरणार्थ, हम पहले यह बता चुके हैं कि चन्द्रमा जीव कहलाता है, क्योंकि वह हम जैसा जीवात्मा है, किन्तु अपने पुण्यकर्मों के कारण उसे चन्द्रदेव का पद प्रदान किया गया है। इसी प्रकार समस्त देवतागण जीवात्माएँ हैं, जिन्हें चन्द्र, पृथ्वी तथा शुक्र के अधिष्ठाता जैसे विभिन्न पदों पर महान सेवा तथा पूण्य कर्मों के कारण आरूढ़ किया गया है। इनमें से सर्वप्रमुख सूर्य के अधिष्ठाता देवता सूर्यनारायण को ही श्रीभगवान् का अवतार माना जाता है। ध्रुवलोक के प्रमुख देवता महाराज ध्रुव भी जीवात्मा हैं। इस प्रकार से आत्मा दो प्रकार के हैं—परमात्मा अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तथा सामान्य जीवात्मा या जीव (नित्यो नित्यानां चेतेनश्चेतनानाम् )। समस्त देवता ईश्वर की सेवा में संलग्न रहते हैं और केवल ऐसी व्यवस्था से ही ब्रह्माण्ड के सारे कार्य चलते हैं।

जहाँ तक इस श्लोक में वर्णित श्येनों (बाज पक्षियों) का प्रश्न है, यह माना जाता है कि ऐसे विशाल बाज हैं, जो बड़े हाथी का शिकार कर सकते हैं। वे इतनी ऊँचाई पर उड़ते हैं कि वे एक ग्रह से दूसरे ग्रह की यात्रा कर सकते हैं। वे एक ग्रह से उडऩा आरम्भ करके दूसरे तक पहुँचते हैं और उड़ते समय अंडे देते हैं जिनसे अन्य पक्षी उत्पन्न होते हैं। जबकि अण्डे गिर रहे होते हैं। संस्कृत में ऐसे बाज पक्षियों को श्येन कहा जाता है। आधुनिक परिस्थितियों में इतने बड़े श्येन तो नहीं दिखते, किन्तु हमें ऐसे विशाल पक्षी ज्ञात हैं, जो बन्दरों को पकड़ कर नीचे गिरा देते हैं और उन्हें मार कर खा जाते है। इसी प्रकार ऐसे भी विशालकाय पक्षी ज्ञात हैं, जो हाथियों पर आक्रमण करके उन्हें मार डालते हैं और खा जाते हैं।

श्येन तथा बादलों के ये दो उदाहरण यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि वायु के द्वारा उड़ाना तथा तैरना कैसे सम्भव होता है। इसी प्रकार ग्रह भी तैरते हैं, क्योंकि भौतिक प्रकृति श्रीभगवान् के आदेशानुसार वायु को संचालित करती है। ऐसा सोचा जा सकता है कि ऐसा संयोजन गुरुत्वाकर्षण के कारण होता है, किन्तु प्रत्येक दशा में हमें यह स्वीकार करना होगा कि समस्त सिद्धान्तों के बनाने वाले श्रीभगवान् ही हैं। इन पर तथाकथित विज्ञानियों का किसी प्रकार नियंत्रण नहीं होता। विज्ञानी झूठे ही यह घोषणा कर सकते हैं कि ईश्वर नहीं हैं, किन्तु यह वास्तविकता नहीं है।

 
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