न वै भगवान्नूनममुष्यानुजग्राह यदुत पुनरात्मानुस्मृतिमोषणं मायामयभोगैश्वर्यमेवातनुतेति ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; वै—निस्सन्देह; भगवान्—श्रीभगवान् ने; नूनम्—निश्चय ही; अमुष्य—बलि महाराज को; अनुजग्राह—अपना अनुग्रह दिखाया; यत्—क्योंकि; उत—निश्चय ही; पुन:—फिर; आत्म-अनुस्मृति—श्रीभगवान् के स्मरण का; मोषणम्—लूटने वाला; माया-मय—माया का एक गुण; भोग-ऐश्वर्यम्—भौतिक ऐश्वर्य; एव—निश्चय ही; आतनुत—विस्मृत; इति—इस प्रकार ।.
अनुवाद
श्रीभगवान् ने बलि महाराज को भौतिक सुख तथा ऐश्वर्य प्रदान करके अपना अनुग्रह प्रदर्शित नहीं किया क्योंकि इनसे ईश्वर की प्रेमाभक्ति भूल जाती है। भौतिक ऐश्वर्य का परिणाम यह होता है कि फिर भगवान् में मन नहीं लगता।
तात्पर्य
दो प्रकार के ऐश्वर्य होते हैं—एक वह जो कर्मों से जनित है और भौतिक है तथा जबकि दूसरा आध्यात्मिक है। शरणागत जीव जो श्रीभगवान् पर पूर्णत: आश्रित होता है इन्द्रियभोग के लिए भौतिक ऐश्वर्य की कामना नहीं करता। अत: यदि शुद्ध भक्त के पास विपुल ऐश्वर्य दिखे तो वह उसके कर्म के कारण नहीं होता, वरन् उसकी भक्ति के कारण होता है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि उसे यह पद इसलिए दिया जाता है, क्योंकि भगवान् चाहते हैं कि वह सरलतापूर्वक एवं वैभवपूर्ण ढंग से उनकी सेवा कर सके। नवदीक्षित भक्त पर भगवान् विशेष दयालु रहते हैं, क्योंकि आर्थिक दृष्टि से वह निर्धन हो जाता है। यह भगवत्कृपा ही है, अन्यथा नवदीक्षित भक्त ऐश्वर्य प्राप्त करके भगवान् की सेवा भूल सकता है। किन्तु यदि भगवान् किसी महान् भक्त को ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, तो यह भौतिक ऐश्वर्य नहीं है किन्तु इसे एक आध्यात्मिक अवसर ही मानना चाहिए। देवताओं को प्रदत्त भौतिक ऐश्वर्य से भक्त भगवान् को भूल जाता है, किन्तु बलि महाराज को भगवान् के प्रति भक्ति बनाये रखने के लिए ऐश्वर्य का वरदान मिला था। जिसे माया छू तक नहीं गई थी।
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