मूर्धन्यर्पितमणुवत्सहस्रमूर्ध्नो
भूगोलं सगिरिसरित्समुद्रसत्त्वम् ।
आनन्त्यादनिमितविक्रमस्य भूम्न:
को वीर्याण्यधिगणयेत्सहस्रजिह्व: ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
मूर्धनि—शिर अथवा फण पर; अर्पितम्—स्थिर; अणु-वत्—अणु के समान; सहस्र-मूर्ध्न:—सहस्र फणों वाले अनन्त का; भू- गोलम्—यह ब्रह्माण्ड; स-गिरि-सरित्-समुद्र-सत्त्वम्—अनेक पर्वतों, वृक्षों, समुद्रों तथा जीवात्माओं सहित; आनन्त्यात्—अनन्त होने से; अनिमित-विक्रमस्य—अपरिमेय शक्ति; भूम्न:—परमेश्वर; क:—कौन; वीर्याणि—शक्तियाँ; अधि—निस्सन्देह; गणयेत्—गिन सकता है; सहस्र-जिह्व:—भले ही सहस्र जीभें क्यों न हों ।.
अनुवाद
अपरिमित होने के कारण ईश्वर की शक्ति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अनेक विशाल पर्वतों, नदियों, सागरों, वृक्षों तथा जीवात्माओं से पूर्ण यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनके सहस्रों फणों में से एक के ऊपर अणु के समान टिका हुआ है। भला, सहस्र जिह्वाओं से भी क्या कोई उनकी महिमा का वर्णन कर सकता है?
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥