भगवान् अनन्त की आकर्षक दीर्घ भुजाएँ कंगनों से आकर्षक ढंग से अलंकृत हैं और पूर्णतया आध्यात्मिक हैं। श्वेत होने के कारण वे चाँदी के ख भों सी प्रतीत होती हैं। जब भगवान् के शुभाशीर्वाद की इच्छुक नागराजों की कुमारियाँ उनकी बाहों में अगुरु, चन्दन तथा कुमकुम का लेप लगाती हैं, तो उनके स्पर्श से उनके भीतर कामेच्छा जाग्रत हो उठती है। उनके मनोभावों को समझ कर भगवान् जब इन राजकुमारियों को कृपापूर्ण मुस्कान से देखते हैं, तो वे यह सोचकर लजा जाती हैं कि वे उनके मनोभावों को जानते हैं। तब वे मनोहर मुसकान सहित भगवान् के मुखकमल को देखतीं हैं, जो उनके भक्तों के प्यार से प्रमुदित तथा मद-विह्वल घूमती हुई लाल-लाल आँखों से सुशोभित रहता है।
तात्पर्य
जब स्त्री तथा पुरुष एक दूसरे के शरीर का स्पर्श करते हैं, तो सहज ही उनके मन में काम-भावना जाग्रत होती है। इस श्लोक से ऐसा सूचित होता है कि अलौकिक देहों में भी ऐसी ही अनुभूति होती है। भगवान् अनन्त तथा उन्हें सुख देने वाली नारियों दोनों ही के शरीर अलौकिक थे। इस प्रकार सभी अनूभूतियाँ मूलत: अलौकिक देह में विद्यमान रहती है। वेदान्त सूत्र से इसकी पुष्टि होती है—जन्माद्यस्य यत:। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की इस सम्बन्ध में टीका है कि आदि शब्द का अर्थ है आदिरस जिसका उद्भव परमेश्वर से होता है। किन्तु आध्यात्मिक काम तथा प्राकृत काम में वैसा ही अन्तर है जैसाकि सोने तथा लोहे में। जो आत्म-साक्षात्कार में जितना ही अधिक सिद्ध होगा वह राधा एवं कृष्ण अथवा कृष्ण एवं व्रज की बालाओं के मध्य की कामभावनाओं को समझ सकता है। इसीलिए जब तक कोई अति अनुभवी तथा आत्मसिद्ध न हो उससे कृष्ण और गोपियों की कामभावनाओं की चर्चा करने के लिए निषेध किया जाता है। किन्तु यदि कोई शुद्ध एवं निष्ठावान् भक्त हो तो गोपी एवं कृष्ण की काम-अनुभूतियों की चर्चा करते समय उसका हृदय पूर्णतया कामरहित होता है और वह आध्यात्मिक जीवन में तेजी से उन्नति करता है।
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