यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:। भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ “यज्ञ से बचे भोजन को करने वाले भगवद्भक्त सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो इन्द्रियतृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं।” हमें सारा भोजन श्रीभगवान् से प्राप्त है। एको बहूंना यो विदधाति कामान्—भगवान् हर एक को जीवन की आवश्यकताएँ प्रदान करते हैं, अत: हमें चाहिए कि उनके अनुग्रह को यज्ञ द्वारा स्वीकार करें। यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। दरअसल, जीवन का एकमात्र उद्देश्य यज्ञ करना है। श्रीकृष्ण के अनुसार (भगवद्गीता ३.९)— यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर ॥ “भगवान विष्णु के लिए यज्ञरूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथा कर्म से इस भौतिक जगत में मनुष्य बँध जाता है। इसलिए हे कुन्तीपुत्र! विष्णु की प्रसन्नता के लिए निर्दिष्ट कर्म का आचरण कर। इस प्रकार करने से तू नित्य अनासक्त तथा बन्धनमुक्त रहेगा।” यदि हम यज्ञ नहीं करते है और दूसरों को प्रसाद वितरित नहीं करते तो हमारे जीवन को धिक्कार है। यज्ञ कर लेने तथा आश्रितों को अर्थात् बच्चों, ब्राह्मणों तथा वृद्धों को प्रसाद वितरित कर लेने के बाद ही मनुष्य को भोजन करना चाहिए। किन्तु यदि कोई केवल अपने लिए या अपने परिवार के लिए रसोई बनाता है, तो वह तथा उसे खाने वाले धिक्कारणीय हैं। मृत्यु के बाद उसे कृमिभोजन नामक नरक में डाल दिया जाता है। |