हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 26: नारकीय लोकों का वर्णन  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  5.26.19 
यस्त्विह वै स्तेयेन बलाद्वा हिरण्यरत्नादीनि ब्राह्मणस्य वापहरत्यन्यस्य वानापदि पुरुषस्तममुत्र राजन् यमपुरुषा अयस्मयैरग्निपिण्डै: सन्दंशैस्त्वचि निष्कुषन्ति ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
य:—कोई व्यक्ति जो; तु—लेकिन; इह—इस जीवन में; वै—निस्सन्देह; स्तेयेन—चोरी से; बलात्—बलपूर्वक; वा—अथवा; हिरण्य—सोना; रत्न—रत्न; आदीनि—इत्यादि; ब्राह्मणस्य—ब्राह्मण का; वा—अथवा; अपहरति—चुराता है; अन्यस्य—अन्यों का; वा—या; अनापदि—आपत्ति के समय नहीं; पुरुष:—व्यक्ति; तम्—उसको; अमुत्र—अगले जीवन में; राजन्—हे राजा; यम-पुरुषा:—यमराज के दूत; अय:-मयै:—लोहे से निर्मित; अग्नि-पिण्डै:—अग्नि में तप्त किये गये गोलों से; सन्दंशै:— संडसी से; त्वचि—चमड़ी पर; निष्कुषन्ति—टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, जो पुरुष आपत्तिकाल न होने पर भी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी के रत्न तथा सोना लूट लेता है, वह सन्दंश नामक नरक में रखा जाता है। वहाँ पर उसकी चमड़ी संडसी और लोहे के गरम पिंडों से उतारी जाती है। इस प्रकार उसका पूरा शरीर खण्ड-खण्ड कर दिया जाता है।
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥