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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 3: राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव का जन्म  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  5.3.3 
अथ ह तमाविष्कृतभुजयुगलद्वयं हिरण्मयं पुरुषविशेषं कपिशकौशेयाम्बरधरमुरसि विलसच्छ्रीवत्सललामं दरवरवनरुहवनमालाच्छूर्यमृतमणिगदादिभिरुपलक्षितं स्फुटकिरणप्रवरमुकुटकुण्डलकटककटिसूत्रहारकेयूरनूपुराद्यङ्गभूषणविभूषितमृत्विक् सदस्यगृहपतयोऽधना इवोत्तमधनमुपलभ्य सबहुमानमर्हणेनावनतशीर्षाण उपतस्थु: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; —निश्चय ही; तम्—उसको; आविष्कृत-भुज-युगल-द्वयम्—जो चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए; हिरण्मयम्— अत्यन्त चमकीला; पुरुष-विशेषम्—समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ, पुरुषोत्तम; कपिश-कौशेय-अम्बर-धरम्—रेशमी पीताम्बर धारण किये; उरसि—वक्षस्थल पर; विलसत्—सुन्दर; श्रीवत्स—श्रीवत्स नामक; ललामम्—चिह्नयुक्त; दर-वर—शंख से; वन-रुह— कमल पुष्प; वन-माला—वन पुष्पों की माला; अच्छूरि—चक्र; अमृत-मणि—कौस्तुभ मणि; गदा-आदिभि:—गदा तथा अन्य चिह्नों से; उपलक्षितम्—लक्षणों से युक्त होकर; स्फुट-किरण—तेजस्वी, किरण-मण्डित; प्रवर—श्रेष्ठ; मुकुट—मुकुट, किरीट; कुण्डल—कर्णाभूषण, बालियाँ; कटक—कंकण; कटि-सूत्र—करधनी; हार—हार; केयूर—बाजूबंद; नूपुर—पाँवों में पहना जाने वाला आभूषण, पायल; आदि—इत्यादि; अङ्ग—शरीर के; भूषण—आभूषणों से; विभूषितम्—अलंकृत; ऋत्विक्— पुरोहितगण; सदस्य—पार्षद; गृह-पतय:—(तथा) राजा नाभि; अधना:—निर्धन व्यक्ति; इव—सदृश; उत्तम-धनम्—प्रचुर धनराशि; उपलभ्य—पाकर; स-बहु-मानम्—अत्यन्त सत्कार सहित; अर्हणेन—पूजा सामग्री से; अवनत—झुका कर; शीर्षाण:—अपने शिर (मस्तकों); उपतस्थु:—स्तुति की ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् विष्णु राजा नाभि के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। वे अत्यन्त तेजोमय थे और समस्त महापुरुषों में सर्वोत्तम प्रतीत होते थे। वे अधोभाग में रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे; उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न था, जो सदैव शोभा देता है। उनके चारों हाथों में शंख, कमल, चक्र तथा गदा थे उनके गले में वनपुष्पों की माला तथा कौस्तुभमणि थी। वे मुकुट, कुण्डल, कंकण, करधनी, मुक्ताहार, बाजूबंद, नूपुर तथा अन्य रत्नजटित आभूषणों से शोभित थे। भगवान् को अपने समक्ष देखकर राजा नाभि, उनके पुरोहित तथा पार्षद वैसा ही अनुभव कर रहे थे जिस प्रकार किसी निर्धन को सहसा अथाह धनराशि प्राप्त हुई हो जाए। उन्होंने भगवान् का स्वागत किया, आदरपूर्वक प्रणाम किया तथा स्तुति करके वस्तुएँ भेंट कीं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर स्पष्ट बताया गया है कि भगवान् सामान्य मनुष्य की तरह नहीं प्रकट हुए। वे राजा नाभि तथा उनके पार्षदों के समक्ष सर्वश्रेष्ठ पुरुष (पुरुषोत्तम) के रूप में प्रकट हुए। जैसाकि वेदों में कहा गया है—नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्। भगवान् भी जीवित प्राणी हैं, किन्तु वे परम पुरुष हैं। भगवद्गीता (७.७) में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं—मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय—हे धनंजय, कोई भी सत्य मुझसे श्रेष्ठ नहीं।” भगवान् श्रीकृष्ण से बढक़र आकर्षक या प्रामाणिक अन्य कोई नहीं। ईश्वर तथा सामान्य प्राणी में यही अन्तर है। भगवान् विष्णु की दिव्य देह के इस विवरण द्वारा भगवान् विष्णु में तथा अन्य प्राणियों से सरलता से विभेद किया जा सकता है। फलत: महाराज नाभि ने अपने पुरोहितों तथा पार्षदों समेत भगवान् को नमस्कार किया और अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। जैसाकि भगवद्गीता (६.२२) में कहा गया है—यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:—“इसे प्राप्त करके मनुष्य सोचता है कि इससे बड़ा अन्य लाभ नहीं है।” जब कोई भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, तो उसे यही लगता है कि उसने सर्वश्रेष्ठ वस्तु प्राप्त कर ली है। रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते—जब उच्चतर स्वाद मिलने लगता है, तो उसकी चेतना स्थिर हो जाती है। भगवान् का दर्शन कर लेने के बाद किसी भौतिक वस्तु के प्रति आकर्षण नहीं रह जाता। तब मनुष्य भगवान् की उपासना में स्थिर हो जाता है।
 
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