ऋत्विज: ऊचु:—ऋत्विजों ने कहा; अर्हसि—(स्वीकार) करें; मुहु:—पुन: पुन:; अर्हत्-तम—हे श्रेष्ठ पूज्य पुरुष; अर्हणम्— पूजा; अस्माकम्—हम सब की; अनुपथानाम्—जो आपके दास हैं; नम:—नमस्कार है; नम:—नमस्कार; इति—इस प्रकार; एतावत्—यहाँ तक; सत्—श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा; उपशिक्षितम्—सिखाये गये; क:—कौन; अर्हति—समर्थ है; पुमान्—मनुष्य; प्रकृति—भौतिक प्रकृति के; गुण—गुणों के; व्यतिकर—रूपान्तरों में; मति:—जिसका मन (मग्न है); अनीश:—असमर्थ; ईश्वरस्य—भगवान् के; परस्य—परम; प्रकृति-पुरुषयो:—तीनों गुणों के अन्तर्गत; अर्वाक्तनाभि:—जो वहाँ तक नहीं पहुँचते अथवा जो इसी संसार के हैं; नाम-रूप-आकृतिभि:—नामों, रूपों तथा गुणों से; रूप—आपकी प्रकृति या स्थिति का; निरूपणम्—निश्चय करना; सकल—समस्त; जन-निकाय—मानव जाति का; वृजिन—पाप कर्म; निरसन—मिटाने वाले; शिवतम—अत्यन्त मंगलमय; प्रवर—श्रेष्ठतम; गुण-गण—दिव्य गुणों का; एक-देश—एक अंश; कथनात्—कथन से; ऋते— केवल ।.
अनुवाद
ऋत्विजगण इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगे—हे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं। यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किंचित सेवा स्वीकार करें। हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमें शिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं। जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अत: वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिक अवधारणाओं से परे हैं। आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि की कल्पना के परे हैं। भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है? इस भौतिक जगत में हम केवल नाम तथा गुण देख पाते हैं। हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जाति के पाप धुल जाते हैं। यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थिति को अंशमात्र ही जान सकते हैं।
तात्पर्य
भगवान् को भौतिक अनुभूति से कुछ भी सरोकार नहीं। यहाँ तक कि अद्वैतवादी शंकराचार्य भी यही कहते हैं—नारायण: परोऽव्यक्तात्—“भगवान्, नारायण, भौतिक अनुभूति से परे (अव्यक्त) हैं।” हम भगवान् के रूप तथा लक्षणों को मन से गढ़ नहीं सकते। हमें वैदिक शास्त्रों में दिये गये उनके रूप तथा कर्म को मात्र स्वीकार कर लेना चाहिए। ब्रह्म-संहिता (५.२९) में कहा गया है—
“मैं उन आदि पुरुष गोविन्द की उपासना करता हूँ जो गायों को पालने वाले हैं। ये गाएँ सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली हैं, ये करोड़ों कल्पतरुओं से घिरी दिव्य मणियों से बने घरों में रहती हैं। उनकी सेवा सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियाँ अत्यन्त आदर सहित करती हैं।” हमें उनके स्वरूप एवं लक्षणों का कुछ-कुछ अनुभव वैदिक साहित्य में प्राय: उल्लेखों एवं ब्रह्मा, नारद, शुकदेव गोस्वामी जैसे सत्पुरुषों द्वारा दिये गये प्रामाणिक कथनों से प्राप्त होता है। श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं—अत: श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यम् इन्द्रियै:—“हम अपनी भौतिक इन्द्रियों से श्रीकृष्ण के नाम, रूप तथा गुण के विषय में अनुमान नहीं कर पाते।” इसीलिए ईश्वर के अन्य नाम भी हैं—अधोक्षज तथा अप्राकृत, जिनसे सूचित होता है कि वे सभी भौतिक इन्द्रियों से परे हैं। भगवान् अपने भक्तों पर अहैतुकी कृपावश ही महाराज नाभि के समक्ष प्रकट हुए। इसी प्रकार जब हम भगवान् की भक्ति में रत रहते हैं, तो वे स्वयं दर्शन देते हैं—सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयम् एव स्फुरत्यद:। भगवान् को समझने की केवल यही विधि है। जैसाकि भगवद्गीता में इनकी पुष्टि हुई है—भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:—“भक्ति के द्वारा ही भगवान् को जाना जा सकता है।” इसके लिए कोई अन्य उपाय नहीं है। हमें प्रामाणिक विद्वानों तथा शास्त्रों के वचनों को ही मानकर भगवान् के सम्बन्ध में चिन्तन करना चाहिए। हम ईश्वर के रूपों तथा लक्षणों की मनगढं़त कल्पना नहीं कर सकते।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥