विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: ॥ “यथार्थ से विनीत साधु विद्या तथा विनय युक्त ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल (कुत्ता भक्षक) को समान दृष्टि से देखता है।” इस सम-दर्शिन: शब्द से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि जीव तथा ईश्वर एक समान हैं। वे सदैव पृथक्-पृथक् हैं। प्रत्येक मनुष्य परमेश्वर से भिन्न है। अत: विविक्त दृक्, सम-दृक् के आधार पर दोनों को एक समान समझना भूल होगी। भगवान् भले ही सर्वत्र रहना स्वीकार करें, किन्तु उनका पद बड़ा है। श्रील मध्वाचार्य पद्म-पुराण से उद्धरण देते हुए कहते हैं— विविक्त-दृष्टि-जीवानां धिष्ण्यतया परमेश्वरस्य भेद-दृष्टि:—“जिसकी दृष्टि विमल है और जो ईष्यारहित है उसे ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा में स्थित रह कर भी समस्त जीवात्माओं से पृथक् दिखता है।” वे पद्म पुराण से और आगे भी से उद्धरण देते हैं— उपपादयेत परात्मानं जीवेभ्यो य: पदे पदे। भेदेनैव न चैतस्मात् प्रियो विष्णोस्तु कश्चन ॥ “जो जीवात्मा तथा परमेश्वर को पृथक्-पृथक् देखता है, वह उसे परम प्रिय होता है।” पद्मपुराण में ही कहा गया है—यो हरेश्चैव जीवानां भेदवक्ता हरे: प्रिय:—“जो यह उपदेश देता है कि जीवात्मा परमेश्वर से पृथक् है, वह भगवान् विष्णु को परम प्रिय होता है।” |