ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन। मन: षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ यद्यपि जीवात्माएँ परमेश्वर के अंशरूप होने के कारण दिव्य स्थिति को प्राप्त हैं, किन्तु इस जगत में वे अपने मन तथा इन्द्रियों के कारण दुख उठा रही हैं। इन दुखों से उबरने के लिए आवश्यक है कि मन तथा इन्द्रियों को वश में किया जाये और भौतिक स्थितियों से विरक्त हुआ जाये। मनुष्य को चाहिए कि तप करना न छोड़े। भगवान् ऋषभदेव ने साक्षात् प्रदर्शित किया कि किस प्रकार यह करना चाहिए। श्रीमद्भागवत (९.१९.१७) में इसका विशेष रूप से उल्लेख हुआ है— मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत्। बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी तथा ब्रह्मचारी को स्त्री-संगति से सावधान रहना चाहिए। यहाँ तक कि अपनी माँ, बहन या लडक़ी के साथ एकान्त में बैठना वर्जित है। हमारे कृष्णभावनामृत आन्दोलन के समाज में, विशेष रूप से पश्चिमी देशों में, स्त्रियों से विलग रह पाना कठिन है। इसीलिए कभी-कभी हमारी आलोचना भी की जाती है, किन्तु हम प्रत्येक प्राणी को “हरे कृष्ण महामंत्र” जपने का समान अधिकार प्रदान कर रहे हैं और इस प्रकार उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर बना रहे हैं। यदि हम निष्पाप भाव से हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करते रहें तो श्रील हरिदास ठाकुर के अनुग्रह से हम स्त्रियों के आकर्षण से बच सकते हैं। किन्तु यदि हम हरे कृष्ण महामंत्र के जाप में तनिक भी ढिलाई बरतेंगे तो हम किसी भी समय स्त्रियों के शिकंजे में आ सकते हैं। |