अथ समीरवेगविधूतवेणुविकर्षणजातोग्रदावानलस्तद्वनमालेलिहान: सह तेन ददाह ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; समीर-वेग—वायु के झोंके से; विधूत—झकझोरे हुए; वेणु—बाँसों की; विकर्षण—रगड़ से; जात—उत्पन्न हुई; उग्र—प्रबल; दाव-अनल:—दावाग्नि; तत्—उस; वनम्—कुटकाचल के निकट के जंगल को; आलेलिहान:—चारों ओर से भक्षण करती; सह—संग; तेन—वह शरीर; ददाह—जल कर राख हो गया ।.
अनुवाद
जब वे भटक रहे थे तो प्रबल दावाग्नि लग गई। यह अग्नि वायु से झकझोरे गये बाँसों की रगड़ से उत्पन्न हुई थी। इस अग्नि में कुटकाचल का पूरा जंगल तथा ऋषभदेव का शरीर भस्मसात् हो गए।
तात्पर्य
ऐसी दावाग्नि पशुओं के शरीरों को जला सकती है, किन्तु भगवान् ऋषभदेव नहीं जले, यद्यपि बाह्य रूप से ऐसा लगा कि वे जल गये। भगवान् ऋषभदेव जगंल के समस्त जीवों की परम आत्मा हैं और उनकी आत्मा अग्नि
में कदापि नहीं जल सकती। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है—अदाह्योऽयं—आत्मा अग्नि में नहीं जलती। भगवान् ऋषभदेव की उपस्थिति के कारण जंगल के सभी पशु इस भौतिक बन्धन से मुक्त हो गये।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥