श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 8: भरत महाराज के चरित्र का वर्णन  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  यद्यपि भरत महाराज परम सिद्ध थे, किन्तु एक नन्हे मृगशावक के प्रति आसक्त होने से उनका पतन हुआ। एक दिन सदा की भाँति गण्डकी नदी में स्नान करके भरत महाराज मंत्र का...
 
श्लोक 1:  श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—हे राजन्! एक दिन प्रात:कालीन नित्य-नैमित्तिक शौचादि कृत्यों से निवृत्त होकर महाराज भरत कुछ क्षणों के लिए गण्डकी नदी के तट पर बैठ कर ओंकार से प्रारम्भ होनेवाले अपने मंत्र का जप करने लगे।
 
श्लोक 2:  हे राजन्, जब महाराज भरत उस नदी के तट पर बैठे हुए थे उसी समय एक प्यासी हिरनी पानी पीने आई।
 
श्लोक 3:  जब वह हिरनी अगाध तृप्ति के साथ जल पी रही थी तो पास ही एक सिंह ने घोर गर्जना की। यह समस्त जीवों के लिए डरावनी थी और इसे उस मृगी ने भी सुना।
 
श्लोक 4:  मृगी स्वभाव से अन्यों द्वारा वध किये जाने से डर रही थी और लगातार शंकित दृष्टि से देख रही थी। जब उसने सिंह की दहाड़ सुनी तो वह अत्यन्त उद्विग्न हो उठी। चौकन्नी दृष्टि से इधर- उधर देख कर वह मृगी अभी जल पीकर पूर्णतया तृप्त भी नहीं हुई थी कि सहसा उसने नदी पार करने के लिए छलाँग लगा दी।
 
श्लोक 5:  मृगी गर्भिणी थी, अत: जब डर के मारे वह कूद पड़ी तो शिशु मृग उसके गर्भ से निकल कर नदी के बहते जल में गिर गया।
 
श्लोक 6:  अपने झुंड से विलग होने तथा गर्भपात से त्रस्त्र हो जाने से वह कृष्णा-मृगी नदी को पार करके अत्यन्त भयभीत हुई। अत: एक गुफा में गिर कर वह तुरन्त मर गई।
 
श्लोक 7:  नदी के तीर पर बैठे हुए महान् राजा भरत ने अपनी माँ से बिछुड़े बच्चे को नदी में उतराते देखा। यह देख कर उन्हें बड़ी दया आई। उन्होंने विश्वासपात्र मित्र की भाँति उस नन्हेशावक को लहरों से निकाल लिया और मातृहीन जान कर वे उसे अपने आश्रम में ले आये।
 
श्लोक 8:  धीरे-धीरे महाराज भरत उस मृग के प्रति अत्यन्त वत्सल होते गये। वे घास खिला-खिलाकर उसका पालन करने लगे। वे बाघ तथा अन्य हिंस्र पशुओं के आक्रमण से उसकी सुरक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहते थे। जब उसे खुजली होती तो वे सहलाते और उसे आरामदेह स्थिति में रखने का प्रयत्न करते। कभी-कभी प्रेमवश उसे चूमते भी थे। इस प्रकार मृग के पालन पोषण में आसक्त हो जाने से महाराज भरत आध्यात्मिक जीवन के यम-नियम भूलते गये, यहाँ तक कि धीरे-धीरे भगवान् की आराधना भी भूल गये। कुछ दिनों के बाद वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति के विषय में सब कुछ भूल गये।
 
श्लोक 9:  महान् राजा भरत सोचने लगे—अहो! बेचारा यह मृगशावक भगवान् के प्रतिनिधि काल- चक्र के वेग से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों से विलग हो गया है और मेरी शरण में आया है। यह अन्य किसी को न जानकर केवल मुझे अपना पिता, माता, भाई तथा स्वजन मानने लगा है। मेरे ही ऊपर इसकी निष्ठा है। यह मेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता, अत: मुझे ईर्ष्यावश यह नहीं सोचना चाहिए कि इस मृग के कारण मेरा अकल्याण होगा। मेरा कर्तव्य है कि मैं इसका लालन, पालन, रक्षण करूँ तथा इसे दुलारूँ-पुचकारूँ। जब इसने मेरी शरण ग्रहण कर ली है, तो भला इसे मैं कैसे दुत्कारूँ? यद्यपि इस मृग से मेरे आध्यात्मिक जीवन में व्यतिक्रम हो रहा है, किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि इस प्रकार से कोई असहाय व्यक्ति यदि शरणागत हो तो उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। तब तो यह बड़ा भारी दोष होगा।
 
श्लोक 10:  भले ही कोई संन्यास ले चुका हो, किन्तु जो महान् है, वह निश्चित रूप से दुखी जीवात्मा के प्रति दया का अनुभव करता है। मनुष्य को चाहिए कि शरणागत की रक्षा के हेतु अपने बड़े से बड़े स्वार्थ की परवाह न करे।
 
श्लोक 11:  मृग के प्रति आसक्ति बढ़ जाने से महाराज भरत उसी मृग के साथ लेटते, टहलते, स्नान करते, यहाँ तक कि उसी के साथ खाना भी खाते। इस प्रकार उनका हृदय मृग के स्नेह में बँध गया।
 
श्लोक 12:  जब महाराज भरत को कुश, फूल, लकड़ी, पत्ते, फल, कन्द तथा जल लाने के लिए जंगल में जाना होता तो उन्हें भय बना रहता कि कुत्ते, सियार, बाघ तथा अन्य हिंस्र पशु आकर मृग को मार न डालें। अत: वे जंगल में जाते समय उसे अपने साथ-ले जाते।
 
श्लोक 13:  जंगल के मार्ग में वह मृग अपने चपल स्वभाव के कारण महाराज भरत को अत्यन्त आकर्षक लगता। महाराज भरत उसे अपने कंधों में भी चढ़ा कर स्नेहवश दूर तक ले जाते। उनका हृदय मृग-प्रेम से इतना पूरित था कि वे कभी उसे अपनी गोद में ले लेते, तो कभी सोते समय उसे अपनी छाती पर चढ़ाए रखते। इस प्रकार उस पशु को दुलारते हुए उन्हें अत्यधिक सुख का अनुभव होता था।
 
श्लोक 14:  जब महाराज भरत ईश्वर की आराधना में या अन्य अनुष्ठान में व्यस्त रहते तो अनुष्ठानों को समाप्त किए बिना बीच-बीच में ही वे उठ उठ जाते और देखने लगते कि मृग कहाँ है। इस प्रकार जब वे यह देख लेते कि वह मृग सुखपूर्वक है, तब कहीं उनके मन तथा हृदय को सन्तोष होता और तब वे उस मृग को यह कह कर आशीष देते, “हे वत्स, तुम सभी प्रकार से सुखी रहो।”
 
श्लोक 15:  कभी कभी भरत महाराज यदि उस मृग को न देखते तो उनका मन अत्यन्त व्याकुल हो उठता। उनकी स्थिति उस कंजूस व्यक्ति के समान हो जाती जिसे कुछ धन प्राप्त हुआ हो, किन्तु उसके खो जाने से वह अत्यन्त दुखी हो गया हो। जब मृग चला जाता, तो उन्हें चिन्ता हो जाती और वियोग के कारण वे विलाप करने लगते। इस प्रकार मोहग्रस्त होने पर वे निम्नलिखित प्रकार से कहते।
 
श्लोक 16:  भरत महाराज सोचते—ओह! यह मृग अब असहाय है। मैं अत्यन्त अभागा हूँ और मेरा मन चतुर शिकारी की भाँति है क्योंकि यह सदैव छल तथा निष्ठुरता से पूर्ण रहता है। इस मृग ने मुझ पर उसी प्रकार विश्वास किया है, जिस प्रकार एक भद्र पुरुष धूर्त मित्र के दुराचार को भूलकर उस पर विश्वास प्रकट करता है। यद्यपि मैं अविश्वासी सिद्ध हो चुका हूँ, किन्तु क्या यह मृग मुझ पर विश्वास करके पुन: लौट आएगा?
 
श्लोक 17:  ओह! क्या ऐसा हो सकता है कि मैं इस पशु को देवताओं से रक्षित तथा हिंस्र पशुओं से निर्भय रूप में फिर देखूँ? क्या मैं उसे पुन: उद्यान में मुलायम घास चरते हुए देख सकूँगा?
 
श्लोक 18:  मुझे पता नहीं, किन्तु हो सकता है कि भेडिय़े या कुत्ते अथवा झुंडों में रहने वाले सुअर या फिर अकेले घूमने वाले बाघ ने उस मृग को खा लिया हो।
 
श्लोक 19:  ओह! सूर्य के उदय होते ही सभी शुभ कार्य होने लगते हैं। दुर्भाग्यवश, मेरे लिए ऐसा नहीं हो रहा है। सूर्यदेव साक्षात् वेद हैं, किन्तु मैं समस्त वैदिक नियमों से शून्य हूँ। वे सूर्यदेव अब अस्त हो रहे हैं, तो भी वह बेचारा पशु, जिसने अपनी माता की मृत्यु होने पर मुझपर विश्वास किया था, अभी तक नहीं लौटा है।
 
श्लोक 20:  वह मृग राजकुमार के तुल्य है। वह कब लौटेगा? वह कब फिर अपनी मनोहर क्रीड़ाएँ दिखायेगा? वह कब मेरे आहत-हृदय को पुन: शान्त करेगा? अवश्य ही मेरे पुण्य शेष नहीं हैं, अन्यथा अब तक वह मृग अवश्य लौट आया होता।
 
श्लोक 21:  ओह! जब यह छोटा-सा हिरण, मेरे साथ खेलते हुए और मुझे आँखें बन्द करके झूठ-मूठ ध्यान करते देख कर, प्रेम से उत्पन्न क्रोध के कारण मेरे चारों ओर चक्कर लगाता और डरते हुए अपने मुलायम सींगों की नोकों से मुझे छूता, जो मुझे जल बिन्दुओं के समान प्रतीत होते।
 
श्लोक 22:  जब मैं यज्ञ की समस्त सामग्री को कुश पर रखता तो यह मृग खेल-खेल में कुश को अपने दाँतों से छूकर अपवित्र कर देता। जब मैं मृग को दूर हटा कर डाँटता-डपटता तो वह तुरन्त डर जाता और बिना हिले डुले बैठ जाता मानो ऋषि का पुत्र हो। तब वह अपना खेल (क्रीड़ा) बन्द कर देता।
 
श्लोक 23:  इस प्रकार एक पागल की भाँति बोलते हुए महाराज भरत उठे और बाहर निकल गए। धरती पर मृग के पदचिह्नों को देखकर उनकी प्रशंसा में अत्यन्त प्रेम से कहा, “अरे अभागे भरत! इस पृथ्वी के तप की तुलना में तुम्हारे तप तुच्छ हैं, क्योंकि पृथ्वी की कठोर तपस्या से ही उस पर इस मृग के छोटे-छोटे, सुन्दर अत्यन्त कल्याणकारी तथा मुलायम पदचिह्न बने हुए हैं। पदचिह्नों की यह श्रेणी मृग-विछोह से दुखी मुझ जैसे व्यक्ति को दिखा रही है कि वह पशु इस जंगल से होकर किस प्रकार आगे गया है और मैं उस खोई हुई सम्पत्ति को किस तरह पुन: प्राप्त कर सकता हूँ। इन पदचिह्नों के कारण यह भूमि स्वर्ग या मुक्ति की इच्छा से देवताओं के हेतु यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के लिए उत्तम स्थान बन गई है।
 
श्लोक 24:  भरत महाराज उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे। अपने सिर के ऊपर उदित चन्द्रमा में मृग के सदृश काले धब्बों को देखकर उन्होंने कहा—कहीं दुखी मनुष्य पर दया करने वाले इस चन्द्रमा ने यह जानते हुए कि मेरा मृग अपने घर से बिछुड़ गया है और मातृविहीन हो गया है, उस पर भी दया की हो? इस चन्द्रमा ने सिंह के अचानक आक्रमण से बचाने के लिए ही मृग को अपने निकट शरण दे दी हो।
 
श्लोक 25:  चाँदनी को देखकर महाराज भरत उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे। उन्होंने कहा—यह मृगछौना इतना विनम्र घुलमिल गया था और मुझे इतना प्रिय था कि इसके वियोग से मुझे अपने पुत्र जैसा वियोग हो रहा है। इसके वियोग-ताप से मुझे दावाग्नि से जल जाने जैसा कष्ट हो रहा है। मेरा हृदय-स्थल कुमुदिनी जैसा जल रहा है। मुझे इतना दुखी देखकर चन्द्रमा मेरे ऊपर चमकते हुए अमृत जैसी वर्षा कर रहा है मानो प्रखर ज्वर से पीडि़त व्यक्ति पर उसका मित्र जल छिडक़ रहा हो। इस प्रकार यह चन्द्रमा मुझे सुख देने वाला है।
 
श्लोक 26:  शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन्, इस प्रकार महाराज भरत दुर्दमनीय आकांक्षा से अभिभूत हो गये जो मृग के रूप में प्रकट हुई। अपने पूर्वकर्मों के फल के कारण वे योग, तप तथा भगवान् की आराधना से च्युत हो गये। यदि यह पूर्वकर्मों के कारण नहीं हुआ तो वे क्योंकर अपने पुत्र तथा परिवार को अपने आध्यात्मिक जीवन के पथ पर अवरोध समझ कर त्याग देने के बाद भी मृग से इतना आकृष्ट होते? वे मृग के लिए इतना दुर्दम्य स्नेह क्यों प्रकट करते? यह निश्चय ही उनके पूर्वकर्म का फल था। राजा मृग को सहलाने तथा उसके लालन पालन में इतने व्यस्त रहते कि वे अपने आध्यात्मिक वृत्तियों से नीचे गिर गये। कालान्तर में, दुर्लंघ्य मृत्यु उनके समक्ष उपस्थित हो गई जिस प्रकार कोई विषधर सर्प चूहे के द्वारा निर्मित छिद्र में चुपके से घुस जाता है।
 
श्लोक 27:  राजा ने देखा कि उनकी मृत्यु के समय वह मृग उनके पास बैठा था मानो उनका पुत्र हो और वह उनकी मृत्यु से शोकातुर था। वास्तव में राजा का चित्त मृग के शरीर में रमा हुआ था, फलत: कृष्णभावनामृत से रहित मनुष्यों की भाँति उन्होंने यह संसार, मृग तथा अपना भौतिक शरीर त्याग दिया और मृग का शरीर प्राप्त किया। किन्तु इससे एक लाभ हुआ। यद्यपि उन्होंने मानव शरीर त्याग कर मृग का शरीर प्राप्त किया था, किन्तु उन्हें अपने पूर्व जीवन की घटनाएँ भूल नहीं पाईं थीं।
 
श्लोक 28:  मृग शरीर प्राप्त करने पर भी भरत महाराज अपने पूर्वजन्म की दृढ़ भक्ति के कारण उस शरीर को धारण करने का कारण जान गये थे। अपने विगत तथा वर्तमान शरीर पर विचार करते हुए वे अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप करते हुए इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 29:  मृग के शरीर में भरत महाराज पश्चात्ताप करने लगे—कैसा दुर्भाग्य है कि मैं स्वरूपसिद्धों के पथ से गिर गया हूँ! आध्यात्मिक जीवन बिताने के लिए मैंने अपने पुत्रों, पत्नी तथा घर का परित्याग किया और वन के एकान्त पवित्र स्थान में आश्रय लिया। मैं आत्मसंयमी तथा स्वरूप सिद्ध बना और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव की भक्ति, श्रवण, चिन्तन, कीर्तन, पूजन तथा स्मरण में निरन्तर लगा रहा। मैं अपने प्रयत्न में सफल रहा, यहां तक कि मेरा मन सर्वदा भक्ति में डूबा रहता था। किन्तु, अपनी मूर्खता के कारण मेरा मन पुन: आसक्त हो गया—इस बार मृग में। अब मुझे मृग शरीर प्राप्त हुआ है और मैं अपनी भक्ति-साधना से बहुत नीचे गिर चुका हूँ।
 
श्लोक 30:  यद्यपि भरत महाराज को मृग शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु निरन्तर पश्चात्ताप करते रहने से वे सांसारिक वस्तुओं से पूर्णत: विरक्त हो गये थे। उन्होंने ये बातें किसी को प्रकट नहीं होने दीं। उन्होंने अपनी मृगी माता को अपने जन्मस्थान कालंजर पर्वत पर ही छोड़ दिया और स्वयं शालग्राम के बन में पुलस्त्य तथा पुलह के आश्रम में पुन: चले आये।
 
श्लोक 31:  उस आश्रम में रहते हुए महाराज भरत अब कुसंगति का शिकार न होने के प्रति सतर्क रहने लगे। किसी को भी अपना विगत जीवन बताये बिना वे उस आश्रम में मात्र सूखी पत्तियाँ खाकर रहते थे। वास्तव में वे अकेले न थे क्योंकि उनके साथ परमात्मा जो थे। इस प्रकार वे इस मृग शरीर के अन्त की प्रतीक्षा करते रहे। अन्त में उस तीर्थस्थल में स्नान करते हुए उन्होंने वह शरीर छोड़ दिया।
 
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