अथ कदाचित्कश्चिद् वृषलपतिर्भद्रकाल्यै पुरुषपशुमालभतापत्यकाम: ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; कदाचित्—किसी समय; कश्चित्—कोई; वृषल-पति:—अन्यों की सम्पत्ति लूटने वाले शूद्रों का सरदार; भद्र-काल्यै—भद्रकाली नामक देवी को; पुरुष-पशुम्—मनुष्य के रूप में पशु की; आलभत—बलि देने लगा; अपत्य- काम:—पुत्र का इच्छुक ।.
अनुवाद
इसी समय, पुत्र की कामना से, डाकुओं का एक सरदार जो शूद्र कुल का था, किसी पशु तुल्य जड़ मनुष्य की भद्रकाली पर बलि चढ़ाकर उपासना करना चाहता था।
तात्पर्य
निम्न श्रेणी के लोग, यथा शूद्र, अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए देवी काली या भद्रकाली जैसी देवियों की उपासना करते हैं। इस उद्देश्य से वे कभी-कभी मूर्ति (अर्चाविग्रह) के समक्ष मनुष्य का वध करते हैं। वे सामान्य रूप से ऐसा व्यक्ति चुनते हैं, जो मन्द बुद्धि हो अर्थात् मनुष्य के रूप में पशु हो।
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