प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय आचरणं सदा ॥ “यह प्रत्येक जीव का धर्म है कि अपने जीवन, धन, बुद्धि तथा वाणी से अन्यों के हित के लिए शुभ कार्य करे।” यही जीवन का ध्येय है। अपना शरीर तथा अपने मित्रों एवं परिजनों के शरीर तथा अपनी सम्पत्ति एवं जो कुछ भी हो, वह सारा परोपकार में लगा देना चाहिए। श्री चैतन्य महाप्रभु का यही सन्देश है। श्रीचैतन्य-चरितामृत (आदि ९.४१) में कहा गया है— भारतभूमिते हैल मनुष्य-जन्म यार। जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥ “जिसने इस भारत भूमि में मनुष्य के रूप में जन्म लिया है, उसे चाहिए कि वह अपने जीवन को सफल बनाए और दूसरों के हित के लिए कार्य करे।” उपकुर्यात् शब्द का अर्थ है पर-उपकार अर्थात् दूसरों की सहायता करना। निस्सन्देह, मानव समाज में ऐसी अनेक संस्थाएँ हैं, जो दूसरों की सहायता करती हैं, किन्तु परोपकारी समाजसेवी यह नहीं जानते कि अन्यों की सहायता किस प्रकार की जाये, अत: उनकी समाजसेवा की लालसा प्रभावशाली नहीं होती। वे जीवन के चरम उद्देश्य (श्रेय आचरणम्) को नहीं जानते, जो परमेश्वर को प्रसन्न करना है। यदि समग्र समाजसेवी तथा मानवतावादी गतिविधियाँ जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने—श्रीभगवान् को प्रसन्न करने—की ओर निर्देशित हों तब वे पूर्ण होंगी। श्रीकृष्ण के बिना कोई भी मानवतावादी कार्य व्यर्थ है। श्रीकृष्ण को प्रत्येक गतिविधि का केन्द्र बनाना होगा, अन्यथा किसी भी गतिविधि का कोई मूल्य नहीं है। |