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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 10: देवताओं तथा वृत्रासुर के मध्य युद्ध  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  6.10.33 
द्वौ सम्मताविह मृत्यू दुरापौ
यद् ब्रह्मसन्धारणया जितासु: ।
कलेवरं योगरतो विजह्याद्
यदग्रणीर्वीरशयेऽनिवृत्त: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
द्वौ—दो; सम्मतौ—(शास्त्रों तथा महापुरुषों द्वारा) सम्मत; इह—इस संसार में; मृत्यू—मृत्युएँ; दुरापौ—अत्यन्त दुर्लभ; यत्—जो; ब्रह्म-सन्धारणया—ब्रह्म, परमात्मा या परब्रह्म कृष्ण में ध्यानमग्न होकर; जित-असु:—मन तथा इन्द्रयों को वश में करके; कलेवरम्—शरीर को; योग-रत:—योग-साधना में लीन; विजह्यात्—त्याग सकता है; यत्—जो; अग्रणी:— आगे चलकर, पथ-पदर्शक बनकर; वीर-शये—युद्धभूमि में; अनिवृत्त:—पीठ न दिखाकर ।.
 
अनुवाद
 
 यशस्वी मृत्यु को वरण करने के दो उपाय हैं और वे दोनों अत्यन्त दुर्लभ हैं। पहला है, योग-साधना, विशेष रूप से भक्तियोग के द्वारा मरना जिसमें मनुष्य मन तथा प्राण को वश में करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चिन्तन में लीन होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। दूसरा है युद्धभूमि में सेना का नेतृत्व करते हुए तथा कभी पीठ न दिखाते हुए मर जाना। शास्त्र में इन दो प्रकार की मृत्युओं को यशस्वी कहा गया है।
 
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के छठे स्कंन्ध के अन्तर्गत “देवताओं तथा वृत्रासुर के मध्य युद्ध” नामक दसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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