यशस्वी मृत्यु को वरण करने के दो उपाय हैं और वे दोनों अत्यन्त दुर्लभ हैं। पहला है, योग-साधना, विशेष रूप से भक्तियोग के द्वारा मरना जिसमें मनुष्य मन तथा प्राण को वश में करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चिन्तन में लीन होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। दूसरा है युद्धभूमि में सेना का नेतृत्व करते हुए तथा कभी पीठ न दिखाते हुए मर जाना। शास्त्र में इन दो प्रकार की मृत्युओं को यशस्वी कहा गया है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के छठे स्कंन्ध के अन्तर्गत “देवताओं तथा वृत्रासुर के मध्य युद्ध” नामक दसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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