वृत्रस्य कर्मातिमहाद्भुतं तत्
सुरासुराश्चारणसिद्धसङ्घा: ।
अपूजयंस्तत् पुरुहूतसङ्कटं
निरीक्ष्य हा हेति विचुक्रुशुर्भृशम् ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
वृत्रस्य—वृत्रासुर का; कर्म—कार्य; अति—अत्यन्त; महा—महान्; अद्भुतम्—अद्भुत, विस्मयजनक; तत्—वह; सुर— देवता; असुरा:—तथा सारे असुर; चारण—चारण; सिद्ध-सङ्घा:—तथा सिद्धों का समाज; अपूजयन्—प्रशंसा किया गया; तत्—वह; पुरुहूत-सङ्कटम्—इन्द्र की संकट-पूर्ण दशा; निरीक्ष्य—देखकर; हा हा—हाय हाय; इति—इस प्रकार; विचुक्रुशु:—विलाप करने लगे; भृशम्—अत्यधिक ।.
अनुवाद
विभिन्न लोकों के वासी, यथा देवता, असुर, चारण तथा सिद्ध, वृत्रासुर के कार्य की प्रशंसा करने लगे, किन्तु जब उन्होंने देखा कि इन्द्र महान् संकट में है, तो वे ‘हाय हाय’ करके विलाप करने लगे।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥