एवं विकल्पितो राजन् विदुषा मुनिनापि स: ।
प्रश्रयावनतोऽभ्याह प्रजाकामस्ततो मुनिम् ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; विकल्पित:—पूछे जाने पर; राजन्—हे राजा परीक्षित; विदुषा—परम विद्वान; मुनिना—मुनि (दार्शनिक) के द्वारा; अपि—यद्यपि; स:—उस (राजा चित्रकेतु) ने; प्रश्रय-अवनत:—विनयवश झुककर; अभ्याह— उत्तर दिया; प्रजा-काम:—पुत्र की इच्छा से; तत:—तत्पश्चात्; मुनिम्—मुनि को ।.
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा—हे राजा परीक्षित! यद्यपि महर्षि अंगिरा को सब कुछ ज्ञात था फिर भी उन्होंने राजा से इस प्रकार पूछा। अत: पुत्र के इच्छुक राजा चित्रकेतु अत्यन्त विनीत भाव से नीचे झुक गये और महर्षि से इस प्रकार बोले।
तात्पर्य
चूँकि मुख मन का दर्पण है, अत: साधु पुरुष किसी भी व्यक्ति के मुख को देखकर ही मन की दशा जान लेते हैं। जब महर्षि अंगिरा ने
राजा के पीले मुखमण्डल के सम्बन्ध में संकेत किया, तो राजा चित्रकेतु ने अपनी चिन्ता का कारण इस प्रकार कह सुनाया।
____________________________
All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥