हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥ “कलह तथा छल-छद्म के इस युग में उद्धार का एकमात्र साधन भगवान् के पवित्र नाम का जप है। इसका कोई अन्य साधन नहीं है, कोई अन्य साधन नहीं, कोई अन्य साधन नहीं है।” (बृहन्नारदीय पुराण)। पाँच सौ वर्ष पूर्व चैतन्य महाप्रभु ने पवित्र नाम के इस जप का सूत्रपात किया और हम कृष्णभावनामृत आन्दोलन के माध्यम से अब यह देख रहे हैं कि निम्न श्रेणी के व्यक्ति भगवान् के पवित्र नाम को सुनने मात्र से ही समस्त पापकर्मों से छुटकारा पा रहे हैं। यह संसार पापकर्मों का परिणाम है। इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति धिक्कारणीय है, तो भी जिस प्रकार कैदियों की भिन्न भिन्न श्रेणियाँ होती हैं उसी प्रकार मनुष्यों की भी विभिन्न श्रेणियाँ हैं। वे जीवन की समस्त अवस्थाओं में दुख भोग रहे हैं। सांसारिक दुखों को रोकने के लिए हरे कृष्ण सङ्कीर्तन आन्दोलन को या कृष्ण-भावनामृत के जीवन को अपनाना चाहिए। यहाँ पर कहा गया है यन्नाम सकृच्छ्रवणात्—श्रीभगवान् का पवित्र नाम इतना शक्तिमान है कि अपराधरहित होकर एक बार भी सुनने पर नीच मनुष्य भी पवित्र हो सकते हैं (किरात-हूणान्ध्र पुलिन्द पुल्कशा:)। ऐसे मनुष्य जो चण्डाल कहलाते हैं, वे शूद्रों से भी नीच हैं, किन्तु वे भी पवित्र नाम के श्रवणमात्र से पवित्र किये जा सकते हैं। हम अपनी वर्तमान स्थिति में भगवान् को मन्दिरों में श्रीविग्रह रूप में प्रत्यक्ष देख सकते हैं। भगवान् के साक्षात् दर्शन की तो बात ही क्या? भगवान् का श्रीविग्रह परमेश्वर से भिन्न नहीं। चूँकि भगवान् हमारे वर्तमान् मोहग्रस्त नेत्रों से नहीं दिखाई पड़ते इसलिए उन्होंने हमारे समक्ष ऐसे रूप में उपस्थित होना स्वीकार किया है, जिसे हम देख सकें। अत: मन्दिर में स्थित श्रीविग्रह को भौतिक नहीं समझना चाहिए। श्रीविग्रह को भोजन भेंट करके तथा उसे अलंकृत करके उसकी सेवा करने से मनुष्य को वही फल प्राप्त होता है, जो वैकुण्ठ में साक्षात् भगवान् की सेवा से प्राप्त होता है। |