ज्ञान का सार यह है कि वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं—एक तो सत्य और दूसरी क्षणिक या मिथ्या। मनुष्य को इन दोनों का अस्तित्व समझना होगा। वास्तविक तत्त्व या सत्य तो ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् हैं। श्रीमद्भागवत (१.२.११) में कहा गया है— वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥ “परम सत्य के ज्ञाता तत्त्वविद् इस अद्वैत वस्तु को ब्रह्म, परमात्मा अथवा भगवान् कहकर पुकारते हैं।” परम सत्य इन तीन रूपों में सदैव विद्यमान है, अत: ये तीनों मिलकर तत्त्व कहलाते हैं। अतत्त्व से दो प्रकार के निसर्जन होते हैं—कर्म तथा विकर्म। कर्म से भौतिक दिन में सम्पन्न दैहिक कार्यों तथा रात्रि में स्वप्न के मानसिक कार्यों का बोध होता है। ये न्यूनाधिक ऐच्छिक कार्यकलाप हैं। किन्तु विकर्म से मिथ्या गतिविधियों का बोध होता है, जो मायाजाल के तुल्य हैं। ये ऐसे कर्म हैं जिनकी कोई सार्थकता नहीं है। उदाहरणार्थ, आधुनिक विज्ञानी यह कल्पना करते हैं कि रासायनिक संयोग से जीवन उत्पन्न किया जा सकता है और इसी को सिद्ध करने के लिए वे विश्व भर में अपनी-अपनी प्रयोगशालाओं में व्यस्त हैं यद्यपि पूरे इतिहास में आज तक कोई भौतिक संयोग के द्वारा जीवन उत्पन्न करने में सक्षम हुआ नहीं मिलता है। एसे कर्मों को विकर्म कहा गया है। सभी भौतिक कार्य-कलाप वास्तव में छल हैं और इनमें प्रगति करना समय का अपव्यय मात्र है। इन्हें अकार्य कहते हैं। मनुष्य को भगवान् के उपदेशों से सीखना चाहिए। जैसा कि भगवद्गीता (४.१७) में कहा गया है— कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: ॥ “कर्म का तत्त्व समझ पाना अत्यन्त गहन है, अत: कर्म, विकर्म तथा अकर्म को भलीभाँति जानना चाहिए।” मनुष्य को इन्हें भगवान् से सीधे ग्रहण करना चाहिए जो अनन्तदेव के रूप में राजा चित्रकेतु को उपदेश दे रहे हैं क्योंकि उसने नारद तथा अंगिरा के उपदेशों का पालन करते हुए भक्ति की समुन्नत अवस्था प्राप्त कर ली थी। यहाँ पर यह कहा गया है—अहं वै सर्वभूतानि—ईश्वर सब कुछ (सर्वभूतानि) है। जिसमें जीवात्माएँ तथा भौतिक तत्त्व सम्मिलित हैं। जैसा कि भगवद्गीता (७.४-५) में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं— भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ “पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और मिथ्या अहंकार—ऐसे आठ प्रकार से विभाजित ये मेरी अपरा भौतिक शक्तियाँ हैं। हे महाबाहु अर्जुन! इस अपरा (जड़) शक्ति के अतिरिक्त मेरी एक परा (चेतन) शक्ति भी है, जो भौतिक शक्ति से संघर्ष करते हुए जीवों से बनी है और जो ब्रह्माण्ड को धारण किए हुए हैं।” जीवात्मा भौतिक तत्त्वों के ऊपर अपना आधिपत्य जताना चाहता है, किन्तु ये भौतिक तत्त्व तथा आध्यात्मिक स्फुलिंग श्रीभगवान् से निकलने वाली शक्तियाँ हैं। इसलिए ईश्वर का कथन है—अहं वै सर्वभूतानि—“मैं सब कुछ हूँ।” जिस प्रकार अग्नि से उष्मा तथा प्रकाश दोनों ही निकलते हैं उसी प्रकार ये दोनों शक्तियाँ—भौतिक तत्त्व तथा जीवात्माएँ—परमात्मा से उद्भूत हैं। इसलिए ईश्वर का कथन है—अहं वै सर्वभूतानि—“मैं भौतिक तथा आध्यात्मिक श्रेणियों का विस्तार करता हूँ।” पुन:, परमात्मा ही बद्धजीवों के मार्गदर्शक हैं, जो भौतिक वातावरण से आबद्ध हो जाते हैं। इसलिए वे भूतात्मा भूतभावन: कहलाते हैं। वे जीवात्मा को बुद्धि प्रदान करते हैं जिससे वह अपनी स्थिति सुधार कर परम धाम को वापस जा सकता है अथवा यदि वह परम धाम को वापस नहीं जाना चाहता तो उसे परमात्मा अपनी भौतिक स्थिति सुधारने के लिए बुद्धि प्रदान करते हैं। इसकी पुष्टि स्वयं भगवान् ने भगवद्गीता (१५.१५) में की है—सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञामपोहनं च—मैं सबों के हृदय में स्थित हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति उत्पन्न हैं।” ईश्वर भीतर से ही जीव को बुद्धि प्रदान करते हैं जिससे वह कार्य कर सके। इसलिए पिछले श्लोक में यह कहा गया था कि ईश्वर की चेष्टा के बाद ही हम चेष्टा आरम्भ करते हैं। हम स्वतंत्र रूप से चेष्टा करने का कोई कार्य कर सकने में असमर्थ हैं इसलिए ईश्वर भूतभावन हैं। इस श्लोक में दिये गये ज्ञान की दूसरी विशेषता यह है कि शब्द-ब्रह्म भी परमेश्वर का एक रूप है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के नित्य, आनन्दमय स्वरूप को परम ब्रह्म रूप में स्वीकार किया है। बद्ध जीवात्मा मायावी वस्तु को सत्य मान बैठता है। यह माया या अविद्या कहलाती है। अत: वैदिक ज्ञान के अनुसार सर्वप्रथम भक्त बनना चाहिए और तब विद्या तथा अविद्या के भेद को समझना चाहिए जिसका विशद वर्णन ईशोपनिषद् में हुआ है। विद्या के स्तर पर वास्तविक रूप में होने पर मनुष्य स्वत: राम, कृष्ण तथा संकर्षण जैसे रूपों में श्रीभगवान् को समझ पाता है। वैदिक ज्ञान को भगवान् का श्वास कहते हैं। वैदिक ज्ञान के आधार पर ही सारे कार्यकलाप प्रारम्भ होते हैं। इसलिए भगवान् का कथन है कि जब मैं चेष्टा करता हूँ या साँस लेता हूँ तभी भौतिक ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति होती है और क्रमश: विभिन्न कार्य चालू होते हैं। भगवद्गीता में ईश्वर का कथन है प्रणव सर्ववेदेषु—“मैं समस्त मंत्रों में ॐ शब्द हूँ।” वैदिक ज्ञान दिव्य शब्द ध्वनि प्रणव या ऊँकार से प्रारम्भ होती है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे भी वह दिव्य ध्वनि (शब्द) है। अभिन्नत्वान् नामनामिनो:—ईश्वर के पवित्र नाम तथा स्वयं ईश्वर में कोई अन्तर नहीं है। |