प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ “सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा सम्पन्न होते हैं परन्तु गुणों से मोहग्रस्त जीवात्मा अपने को इनका कर्ता मान बैठता है।” वस्तुत: बद्धजीव पूर्णत: भौतिक प्रकृति के वश में रहता है। हर समय यहाँ-वहाँ भटकते हुए उसे पूर्वकर्मों के फल भोगने होते हैं। यह सब प्रकृति के नियमों से घटित होता है, किन्तु मनुष्य मूर्खतावश अपने को कर्ता मान बैठता है, जो कि सत्य नहीं है। कर्म- चक्र से छूटने के लिए भक्ति-मार्ग या कृष्णभावनामृत ग्रहण करना चाहिए। यही एकमात्र उपाय है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। |