अथ प्रसादये न त्वां शापमोक्षाय भामिनि ।
यन्मन्यसे ह्यसाधूक्तं मम तत्क्षम्यतां सति ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
अथ—अत:; प्रसादये—प्रसन्न करने का प्रयत्न कर रहा हूँ; न—नहीं; त्वाम्—तुमको; शाप-मोक्षाय—शाप से मुक्ति पाने के लिए; भामिनि—हे क्रुद्धा; यत्—जो; मन्यसे—तुम मान लो; हि—निस्सन्देह; असाधु-उक्तम्—अनुचित बात; मम— मेरी; तत्—वह; क्षम्यताम्—क्षमा करें; सति—हे सती! ।.
अनुवाद
हे माता! आप अब वृथा ही क्रुद्ध हैं। चूँकि मेरे समस्त सुख-दुख मेरे पूर्वकर्मों के द्वारा सुनिश्चित हैं, अत: मैं न तो क्षमा-प्रार्थी हूँ और न आपके शाप से मुक्त होना चाहता हूँ। यद्यपि मैंने जो कुछ कहा है अनुचित नहीं है, किन्तु जो कुछ आप अनुचित समझती हों उसके लिए क्षमा करें।
तात्पर्य
चित्रकेतु को यह भलीभाँति ज्ञात था कि प्रकृति के नियमों से कर्मों के फल प्राप्त होते हैं, अत: वह पार्वती के शाप से मुक्त नहीं होना चाहता था। तो भी वह उन्हें संतुष्ट
करना चाहता था क्योंकि उसने कहा था उसके कथन के स्वाभाविक होने पर भी वे उससे रुष्ट थीं। अत: शिष्टाचार के नाते महाराज चित्रकेतु ने पार्वती से क्षमायाचना की।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥