द्वैतमय जगत के सुख तथा दुख दोनों ही भ्रामक धारणाएँ हैं। श्रीचैतन्य-चरितामृत (अ्न्त्य ४.१७६) में कहा गया है— “द्वैते” भद्राभद्रज्ञान, सब—“मनोधर्म”।
एइ भाल, एइ मन्द,”—एइ सब “भ्रम” ॥
द्वैतपूर्ण जगत में सुख तथा दुख का अन्तर मात्र मनोरथ होता है क्योंकि तथाकथित सुख तथा दुख वास्तव में एक ही हैं। वे स्वप्न में भोगे सुख तथा दुख के तुल्य हैं। सुप्त मनुष्य स्वप्न में सुख-दुख की सृष्टि कर लेता है यद्यपि इनका अस्तित्व होता है।
इस श्लोक में दूसरा उदाहरण फूल की माला का है, जो मूलत: अत्यन्त सुन्दर होती है, किन्तु भ्रमवश तथा प्रौढ़ ज्ञान के अभाव में मनुष्य उसे साँप समझ बैठता है। इस प्रसंग में प्रबोधानन्द सरस्वती का कथन—विश्वं पूर्ण-सुखायते—लागू होता है। इस भौतिक संसार में प्रत्येक मानव संकट-पूर्ण स्थितियों से दुखी है किन्तु प्रबोधानंद सरस्वती कहते हैं कि यह संसार सुख से पूर्ण है। यह कैसे सम्भव है? इसका उत्तर वे इस प्रकार देते हैं—यत्-कारुण्य-कटाक्ष-वैभवतां तं गौरमेव स्तुम:। भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु की अहैतुकी कृपा के कारण ही इस संसार के दुख को सुख मान लेता है। उन्होंने स्वयं यह दिखा दिया कि हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करते हुए वे सदैव प्रसन्न रहे, उन्हें कोई कष्ट नहीं मिला। मनुष्य को चाहिए कि उन्हीं के चरण-चिह्नों का अनुसरण करते हुए निरन्तर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे—इस महामंत्र का कीर्तन करे। तब उसे इस संसार की द्वैतता से कष्ट नहीं पहुँचेगा। चाहे जिस स्थिति में वह रहे, ईश्वर के पवित्र नाम के जप से वह प्रसन्न रहेगा।
अपने स्वप्नों में हम कभी खीर खाने का आनन्द उठाते हैं, तो कभी ऐसा लगता है मानों हमारे परिवार का कोई प्रिय सदस्य मर गया है। चूँकि जाग्रत अवस्था में वही मन तथा वही शरीर उसी द्वैतपूर्ण संसार में रहते हैं, अत: संसार के तथाकथित सुख तथा दुख स्वप्न के काल्पनिक तथा ऊपरी सुख से श्रेष्ठ नहीं हैं। स्वप्न तथा जागृति दोनों में मन ही कार्य करता है और मन के संकल्प तथा विकल्प से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु मनोधर्म कहलाती है।