वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित:। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ जो मनुष्य वासुदेव कृष्ण की शुद्ध भक्ति में अनुरक्त होता है, वह स्वत: इस संसार से अवगत हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह स्वभावत: विरक्त हो जाता है। यह विरक्ति उसके उच्च ज्ञान से ही सम्भव है। चिन्तनशील दार्शनिक ज्ञान के अनुशीलन से यह समझने का प्रयास करता है कि यह संसार मिथ्या है, किन्तु भक्त में बिना किसी प्रयास के यह ज्ञान स्वत: प्रकट होता है। मायावादी चिन्तक अपने तथाकथित ज्ञान पर गुमान कर सकते हैं किन्तु वासुदेव को न समझने के कारण (वासुदेव: सर्वम् इति) वे संसार की द्वैतता को नहीं समझ पाते क्योंकि यह वासुदेव की बहिरंगा शक्ति का प्राकट्य है। अत: जब तक तथाकथित ज्ञानी वासुदेव की शरण में नहीं जाते तब तक उनका चिन्तनशील ज्ञान अधूरा रहता है। येऽन्येरविन्दाक्ष विमुक्ति-मानिन:—वे वासुदेव के चरणकमलों की शरण में गये बिना सांसारिक कलुष से मुक्त होना चाहते हैं किन्तु वे वासुदेव के चरणकमलों में शरण नहीं लेते हैं, अत: उनका ज्ञान अशुद्ध है। वे जब सचमुच शुद्ध हो जाते हैं, तो वासुदेव की शरण ग्रहण करते हैं अत: ज्ञानी की अपेक्षा भक्त के लिए परम सत्य को समझ पाना सुगम है क्योंकि ज्ञानी वासुदेव को समझने के लिप मात्र चिन्तन करते हैं। शिवजी ने इस कथन की पुष्टि अगले श्लोक में की है। |