समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ “मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ और न पक्षपात; जीव मात्र में मेरा समभाव है। परन्तु जो प्राणी भक्तिभाव से मेरी सेवा करते हैं, वे मेरे मित्र मुझमें ही स्थित हैं। और मैं भी उनका मित्र हूं। ” भगवान् के इस कथन से स्पष्ट है कि भगवान् को उनके भक्त सदैव अत्यन्त प्रिय हैं। वास्तव में शिव ने पार्वती से यह कहा, “चित्रकेतु तथा मैं दोनों ही भगवान् को परम प्रिय हैं अर्थात् हम दास रूप में समान स्तर पर हैं; हम एक दूसरे के सखा हैं और कभी कभी परिहास भी कर लेते हैं। जब चित्रकेतु मेरे व्यवहार पर जोर से हँसा तो वास्तव में मित्र होने के नाते उसने ऐसा किया, अत: उसे शाप देने की कोई आवश्यकता न थी।” इस प्रकार शिवजी ने अपनी पत्नी पार्वती को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि चित्रकेतु को शाप देकर उन्होंने अच्छा नहीं किया। जीवन के उच्च स्तर पर भी स्त्री तथा पुरुष में भेद हैं, यहाँ तक कि भगवान् शिव तथा पार्वती में भी। शिवजी तो चित्रकेतु को ठीक से जान पाये किन्तु पार्वती नहीं जान पाईं। अत: जीवन के उच्च स्तरों में भी पुरुष और स्त्री की समझ में अन्तर होता है। यह स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है कि स्त्री की समझ पुरुष से निम्न कोटि की होती है। अब पाश्चात्य देशों में स्त्री तथा पुरुष को समान मानने के लिए आन्दोलन किया जा रहा है, किन्तु इस श्लोक से पता चलता है कि स्त्री सदैव पुरुष की अपेक्षा कम बुद्धिमान होती है। यह स्पष्ट है कि चित्रकेतु अपने मित्र शिव की आलोचना इसलिए करना चाहते थे क्योंकि वे अपनी पत्नी को गोद में बैठाये हुए थे। शिव भी चित्रकेतु की आलोचना करना चाहते थे क्योंकि ऊपर से वे महान् भक्त थे और भीतर भीतर विद्याधर लोक की स्त्रियों के साथ सुखोपभोग में रुचि दिखा रहे थे। ये तो मित्रों के पारस्परिक हास-परिहास थे, इसमें चित्रकेतु को पार्वती द्वारा शाप दिये जाने का कोई कारण न था। शिवजी के उपदेश को सुनकर पार्वती अवश्य ही लज्जित हुई होंगी कि उन्होंने चित्रकेतु को असुर बनने का शाप क्यों दिया? माता पार्वती चित्रकेतु की स्थिति नहीं समझ पाई थीं अत: उन्होंने शाप दे दिया। किन्तु शिवजी के वचनों को समझने के बाद वे लज्जित हुईं। |