इन्द्र: उवाच—इन्द्र ने कहा; अम्ब—हे माता; ते—तुम्हारा; अहम्—मैं; व्यवसितम्—व्रत; उपधार्य—समझकर; आगत:— आया; अन्तिकम्—पास ही; लब्ध—पाकर; अन्तर:—त्रुटि, दोष; अच्छिदम्—मैंने काट दिया; गर्भम्—गर्भ; अर्थ बुद्धि:—स्वार्थवश; न—नहीं; धर्म-दृक्—धर्म-दृष्टि वाला ।.
अनुवाद
इन्द्र ने उत्तर दिया—हे माता! स्वार्थ से अंधा होने के कारण मैंने धर्म से मुँह मोड़ लिया था। जब मुझे ज्ञात हुआ कि आप आध्यात्मिक जीवन का महान् व्रत धारण कर रही हैं, तो मैं उसमें कोई त्रुटि निकालना चाहता था। और जब मुझे त्रुटि मिल गई तो मैं आपके गर्भ में प्रविष्ट हो गया और मैंने गर्भ को खंड खंड कर दिया।
तात्पर्य
जब इन्द्र की मौसी दिति ने बिना हिचक के इन्द्र को अपना मन्तव्य कह सुनाया तो इन्द्र ने अपना मन्तव्य बताया। इस प्रकार दोनों परस्पर शत्रु न रहकर एक दूसरे से सत्य बोलने लगे। विष्णु की संगति के प्रभाव से ही ऐसा होता है। श्रीमद्भागवत(५.१८.१२) में कहा गया है—यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना
सर्वै: गुणैस्तत्र समासते सुरा:—यदि किसी में भक्ति की प्रवृत्ति जागृत होती है और वह परमेश्वर की पूजा करके शुद्ध बन जाता है, तो उसके शरीर में निश्चय ही समस्त श्रेष्ठ गुण प्रकट होते हैं। विष्णु की पूजा के स्पर्श से दिति तथा इन्द्र दोनों शुद्ध हो गये।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥