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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 18: राजा इन्द्र का वध करने के लिए दिति का व्रत  »  श्लोक 77
 
 
श्लोक  6.18.77 
श्रीशुक उवाच
इन्द्रस्तयाभ्यनुज्ञात: शुद्धभावेन तुष्टया ।
मरुद्भ‍ि: सह तां नत्वा जगाम त्रिदिवं प्रभु: ॥ ७७ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इन्द्र:—इन्द्र; तया—उस (दिति) से; अभ्यनुज्ञात:—अनुमति पाकर; शुद्ध-भावेन—शुद्ध आचरण से; तुष्टया—संतुष्ट होकर; मरुद्भि: सह—मरुतों के साथ; ताम्—उसको; नत्वा—नमस्कार करके; जगाम—चला गया; त्रि-दिवम्—स्वर्गलोक को; प्रभु:—भगवान् ।.
 
अनुवाद
 
 श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—दिति इन्द्र के इस उत्तम आचरण से अत्यन्त प्रसन्न हुई। तब इन्द्र ने अपनी मौसी को अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया और उसकी आज्ञा से अपने मरुद्गण भाइयों सहित स्वर्गलोक को चला गया।
 
 
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