इस श्लोक में विष्णु-कृत्यान् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन का उद्देश्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना है। वर्णाश्रम धर्म भी इसी प्रयोजन के लिए है। जैसाकि विष्णु पुराण (३.८.९) में कहा गया है— वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण पर: पुमान्।
विष्णुराराध्यते पन्था नान्यत् तत्तोषकारणम् ॥
मानव-समाज इसलिए है कि वह कठोरतापूर्वक उस वर्णाश्रम धर्म का पालन करे जो समाज को चार सामाजिक विभागों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) और चार आध्यात्मिक विभागों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) में विभक्त करता हैं। वर्णाश्रम धर्म मनुष्य को भगवान् विष्णु के निकटतर लाता है, जो कि मानव-समाज का एकमात्र असली लक्ष्य है। न ते विदु: स्वार्थगतिं हि विष्णुम्—किन्तु दुर्भाग्यवश लोग यह नहीं जानते कि उनका स्वार्थ भगवद्धाम वापस जाने में या भगवान् विष्णु के पास पहुँचने में है। दुराशया ये बहिरर्थमानिन:—विपरीत इसके, वे केवल मोहग्रस्त रहते हैं। हर मनुष्य से आशा की जाती है कि भगवान् विष्णु के पास पहुँचने के लिए कर्तव्य करे। अतएव यमराज यमदूतों को परामर्श देते हैं कि वे उन्हीं लोगों को उनके पास लायें जिन्होंने भगवान् विष्णु के प्रति अपने कर्तव्य भुला दिये हैं (अकृतविष्णुकृत्यान्)। जो विष्णु (कृष्ण) के पवित्र नाम का कीर्तन नहीं करता, जो विष्णु के अर्चाविग्रह को शीश नहीं झुकाता तथा जो भगवान् विष्णु के चरणकमलों का स्मरण नहीं करता, वह यमराज द्वारा दण्डनीय है। संक्षेप में, सारे अवैष्णव यमराज द्वारा दण्डनीय हैं।