अविश्रान्तिप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च ॥ यदि कोई व्यक्ति हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन अपराध सहित भी करता है, तो वह अविचल भाव से निरन्तर कीर्तन करते हुए अपराधों से बच सकता है। जो इसका अभ्यस्त हो जाता है, वह सदा शुद्ध दिव्य पद पर रहेगा जो पापफलों से अस्पृश्य है। शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित से विशेष अनुरोध किया कि इस तथ्य को सावधानी से अंकित कर लें। किन्तु वैदिक कर्मकाण्डों को करने से कोई लाभ नहीं होता। ऐसे कार्य करने से मनुष्य उच्चतर लोकों को जा सकता है, किन्तु जैसा कि भगवद्गीता (९.२१) में कहा गया है—क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति—जब स्वर्गलोक में मनुष्य के भोग की अवधि समाप्त हो जाती है, क्योंकि उसके पुण्य कर्म सीमित होते हैं, तो उसे पृथ्वी पर लौटना होता है। इस तरह ब्रह्माण्ड में ऊपर-नीचे भ्रमण करते रहने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं है। इससे अच्छा तो भगवन्नाम का कीर्तन करना है, जिससे वह पूर्णतया शुद्ध हो सके और भगवद्धाम लौटने का पात्र बन सके। यही जीवन का उद्देश्य है और यही जीवन की सिद्धि है। |