तितिक्षव: कारुणिका: सुहृद: सर्वदेहिनाम्। अजातशत्रव: शान्ता: साधव: साधुभूषणा: ॥ साधु अर्थात् भक्त कभी क्रुद्ध नहीं होता। वस्ततु: उन भक्तों का जो तपस्या करते हैं, असली स्वभाव क्षमाशीलता है। यद्यपि वैष्णव को तपस्या से पर्याप्त शक्ति मिलती है, किन्तु विभिन्न कठिनाइयों में पडऩे पर वह कभी क्रुद्ध नहीं होता। यदि कोई तपस्या करता है, किन्तु वैष्णव नहीं बनता तो उसमें सद्गुण उत्पन्न नहीं होते। उदाहरणार्थ, हिरण्यकशिपु तथा रावण ने भी महान् तपस्याएँ की थीं, किन्तु उन्होंने अपनी आसुरी प्रवृत्तियों का प्रदर्शन करने के लिए ऐसा किया। वैष्णवों को भगवान् की महिमा का प्रचार करते समय अनेक विरोधियों का सामना करना पड़ता है, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु की संस्तुति है कि वे प्रचार करते हुए क्रुद्ध न हों। श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह सूत्र दिया है—तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:—मनुष्य को चाहिए कि मन की विनीत अवस्था में, अपने को मार्ग में उगे हुए तिनके से भी निम्न समझते हुए भगवन्नाम का कीर्तन करे। उसे वृक्ष से भी अधिक सहनशील, मिथ्या प्रतिष्ठा के भाव से रहित तथा अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। ऐसी मनोदशा में मनुष्य भगवान्नाम का निरन्तर कीर्तन कर सकता है। जो लोग भगवान् की महिमा के प्रचारकार्य में लगे हुए हैं उन्हें घास (तृण) से भी अधिक विनीत एवं वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु होना चाहिए। तब वे बिना कठिनाई के भगवान् की महिमा का प्रचार कर सकते हैं। |